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मांसनियुक्ति ६१५, जन-लक्षणावलो
मिथ्याचारित्र मांसनियुक्ति-यस्याहं मांसमम्यत्र प्रेत्य मांस की है उसका स्मरण करने से मित्रानुराग नामक ममत्स्यति । एतां मांसस्य नियुक्तिमाहुः सूरिमत- सल्लेखना का अतिचार होता है। दूसरे शब्द से ल्लिका: ।। (धर्मसं. श्रा. ५-३५)।
इसे मित्रस्मृति भी कहा जाता है। जिस पशु प्रादि का मांस इस लोक में मैं खाता हूँ मिथ्याकार-१. xxx मिच्छाकारो तहेव वह परलोक में मुझे भी खाएगा, इसे प्राचार्य श्रेष्ठ
अवराहे । (मूला. ४-५)। २. मिथ्या वितयममांस की नियुक्ति कहते हैं।
नृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः, मिथ्यामित -१. मितं वर्णादिनियतपरिमाणम् । (प्राव.
क्रियेत्यर्थः; तथा च संयम-योगवितथाचरणे विदितनि. हरि. व. ८८५, पृ. ३७६) । २. मितं परि
जिनवचनसाराः साधवस्तत्क्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय
मिथ्याकारं कुर्वते, मिथ्या क्रियेयमिति हृदयम् । मिताक्षरम् । (व्यव. भा. मलय. व. १-१६०, पृ. ३४)।
(प्राव. नि. हरि. व. ६६६, प. २५८)। ३. मिथ्या
वितथमयथा, यथा भगवदभिरुक्तं न तथा, दुष्कृतमे१ वर्ण-पदादि से जिसका प्रमाण निश्चित होता है उसे मित कहा जाता है। यह सर्वज्ञभाषित सूत्रवचन
तदिति प्रतिपत्ति: मिथ्यादुष्कृतम्, मिथ्या प्रक्रियाके पाठ गुणों में से सातवां है।
निवत्युपगमः मिथ्याकरणं मिथ्याकारः । (प्रनयो.
हरि. व. पृ. ५८)। ४. यन्मया दुष्कृतं पूर्व तन्मिमित्र--१. xxx कि मित्रं यन्निवर्तयति पापा
ध्यास्तु न तत्पुरः। करोमीति मनोवृत्तिमिथ्याकारोत। (प्रश्नो. मा. १४)। २. यः कारणमन्तरेण ऽति निर्मलः ॥ (प्राचा. सा. २-७)। ५. मिथ्या रक्ष्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् । (नीतिवा. अलीकं करोतीति मिथ्याकारो विपरिणामस्य त्यागः । २३-२)।
(मूला. वृ. ४-४)। १ जो पाप से बचाता है उसे मित्र समझना चाहिए। १अपराध होने पर-व्रतादि के विषय में प्रति२ जो अकारण ही रक्षणीय अथवा रक्षक होता है चार के होने पर--काय और मन से उसका परिवह नित्य मित्र होता है।
हार करना, इसका नाम मिथ्याकार है। २ मिथ्या, मित्रस्मृति- देखो मित्रानुराग ।
वितथ और अन्त ये समानार्थक शब्द हैं। अभिमित्रानुराग-१. पूर्वसुहृत्सहपांसुक्रोडनाद्यनुस्म
प्राय यह है कि सयम व योग के विषय में प्रसदारणं मित्रानुरागः। (स. सि. ७-३७)। २. पूर्व
चरण के होने पर तत्वज्ञ साधुजन उस माचरण की कृतसहपांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणान्मित्रानुरागः । व्यसने
असत्यता को दिखलाने के लिए 'यह प्रवृत्ति मिथ्या सहायत्वमुत्सवे संभ्रम इत्येवमादिषु कृतं बाल्ये यूग- हा इस प्रकार से मिथ्याकार किया करत ह। पत् क्रीडनमित्येवमादीनामनुस्मरणात मित्रेऽनरागो मिथ्याचार-मिथ्या अलीको विशिष्टभावशून्यः भवति । (त. वा. ७, ३७, ४)। ३. पूर्वसुहृत्सह
माचारो मिथ्याचारः । Xxx मिथ्याचारस्वरूप पांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणं मित्रानुरागः। (त. श्लो. ७,
चेदम-बाह्यन्द्रियाणि संयम्य य प्रास्ते मनसा ३७) । ४. व्यसने सहायत्वमुत्सवे संभ्रम इत्येवमादि स्मरन् । इन्द्रियार्थविमूढात्मा मिथ्याचारः स सकृत बाल्ये सहपाशक्रीडनमित्येवमादीनामनस्मरणं उच्यते । (षोडश. वृ. १-६)। मित्रानुरागः । (चा. सा. पृ. २४) । ५. मित्रस्मृतिः विशिष्ट अभिप्राय से रहित जो प्रसत्य आचरण वाल्याद्यवस्थायां सहक्रीडितमित्रानुस्मरणम् । (रत्न- किया जाता है उसे मिथ्याचार कहते हैं। मिथ्याक. टी. ५-८)। ६. चिरन्तनमित्रेण सह क्रीडनानु- चार का स्वरूप यह कहा गया है-बाह्य इन्द्रियों स्मरणं कथमनेन ममाभीष्टेन मित्रेण मया सह का दमन करके जो मुख जीव मन से इन्द्रियविषयों पांशुक्रीडनादिक कृतं कथमनेन ममाभीष्टेन व्यसन- का स्मरण करते हुए स्थित रहता है उसकी इस सहायत्वमाचरितं कथमनेन ममाभीष्टेन मदुत्सवे प्रवृत्ति को मिथ्याचार कहा जाता है। संभ्रमो विहितः इत्याद्यनुस्मरण मित्रानुरागः । (त. मिथ्याचारित्र-१. वृत्तमोहोदयाज्जन्तोः कषायवृत्ति श्रुत. ७-३७)।
वशवर्तिनः । योगप्रवृत्तिरशुभा मिथ्याचारित्रमूचिरे ।। १ पूर्व में भित्रों के साथ जो धूलि प्रादि में कीड़ा (तत्त्वानु. ११) । २. तन्मार्गाचरणं (भगवदहत्पर
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