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मायाशल्य मरण]
[माग
मायाशल्य मरण - पार्श्वस्थादिरूपेण चिरं विहृत्य पश्चादपि श्रालोचनामंतरेण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । पार्श्वस्थ आदि के रूप में दीर्घ काल तक बिहार करके - प्रवृत्ति करके जो प्रालोचना के विना ही मृत्यु को प्राप्त होता है उसके मरण को मायाशत्यमरण कहा जाता है ।
जन है उसे मारणान्तिकसमुद्घात कहते हैं ।" २ अपने वर्तमान शरीर को न क्षोड़कर ऋजुगति से अथवा विग्रह (मोड़ वाली ) गति से जहां उत्पन्न होना है उस क्षेत्र तक जाकर शरीर से तिगुणे बाहल्य से प्रथवा अन्य प्रकार से अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थित रहना, इनका नाम मारणान्तिकसमुद्घात है ।
मायी माया (एयस्स) प्रत्थित्ति मायी । पु. १, पृ. १२० ) ; मायास्यास्तीति मायी । पु. ६, पृ. २२१) ।
जिस जीव का व्यवहार मायापूर्ण होता है उसे मायी कहा जाता है ।
मारणान्तिका तिसहनता - मारणान्तिका तिसहनता कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहन मि ति । (समवा. अभय वृ. २७) । मरणकाल में होने वाले उपसर्ग को कल्याणकर मित्र की बुद्धि से सहन करना, इसका नाम मारणान्तिक प्रतिसहनता है । यह २७ अनगार गुणों में प्रतिम है ।
भाविनी, श्रतएव मारणान्तिकी मरणरूपे अन्ते अवसाने भवा मरणान्तिकी संलेखना – कायस्य तपसा कृशीकरणम् । ( श्रौपपा. अभय वृ. ३४, पृ. ८२ ) । तप के द्वारा शरीर के कृश करने का नाम संलेखना है । वह चूंकि भरणरूप प्रन्त समय में होती है इसलिए उसे मारणान्तिकी, पश्चिमा व प्रपश्चिमा संलेखना भी कहा जाता है ।
मारण - मारणं प्राणवियोजनमसि शक्ति कुन्तादिभि: । (ध्यानश. हरि. वृ. १६) । तलवार, शक्ति अथवा भाला प्रादि के द्वारा किये मारणान्तिको संलेखना - पश्चिमा पश्चात्कालजाने वाले प्राणवियोग का नाम मारण है । मारणसमुद्धात - देखो मारणान्तिकसमुद्घात । मारणान्तिकसमुद्घात - - १. श्रीपऋमिकानुपक्रमायुः क्षयाविर्भूतमरणान्तप्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्घातः । (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७७ ) । २. मारणंतियसमुग्धादो णाम अप्पणी वट्टमाणसरीरमच्छड्डिय उजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्त ताव गंतॄण सरीरतिगुणबाहल्लेण श्रण्णहा वा श्रतो मुहुत्तमच्छणं । ( धव. पु. ४, पृ. २६ - २७ ) ; अप्पणो अच्छिदपदेसादो जात्र उप्पज्ज माणखेत्तं ति श्रयामेण एगपदेसमादि कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्लेण कंडेक्कथं भट्टि यत्तोरण-हल गोमुत्तायारेण अंतमहुत्तावद्वाणं मारनियममुग्धादो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. २६६, ३०० ) । ३. मरणान्तसमये मूलशरीरमपरित्यज्य यत्र कुत्रचिद् वद्धमायुस्तत्प्रदेश स्फुटितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति मरणान्तिकसमुद्घातः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १०१ कार्तिके. टी १७३) । ४. मरणे भवो मारण:, स चासो समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १३) । ५. मरणे मरणकाने भवो मारण:, मारणश्चासौ समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः, सोऽन्तम्हूर्नावशेषायुःकर्मविषयः । ( पंचस. मलय. वृ. २-२७) ।
१ श्रपकनिक अथवा अनौपक्रमिक श्रायु के क्षय से प्रगट होने वाला तथा मरण का अन्त जिसका प्रयो
१०, जन-लक्षणावली
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( धव.
( घव.
मारुतचारण - णाणा विहगदिमा रुदपदेस पंतीसुदेंति पदखेवे । जं श्रक्खलिया मुणिणो सा मारुदचारणा रिद्धी । ( ति प ४-१०४७) ।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनिजन अनेक प्रकार की गतिवाली वायु को प्रदेशपंक्तियों पर पादक्षेप करते हुए निर्बाध रूप से गमन करते हैं वह मारतचारण ऋद्धि कहलाती है ।
मार्ग - १. सृजेः शुद्धिकर्मणो मार्ग इवार्थाभ्यन्तरीकरणात् । मृष्टः शुद्धोऽसाविति मार्गः, मार्ग इव मार्गः । क उपमार्थः ? यथा स्थाणुकण्टकोपल शर्करादिदोषरहितेन मार्गेण मार्गगाः सुखमभिप्रेतस्थानं गच्छन्ति तथा मिथ्यादर्शनाऽसंयमादिदोषरहितेन त्र्यंशेन श्रेयोमार्गेण सुखं मोक्षं गच्छन्ति । (त. वा. १, १, ३८ ) । २. स्वाभिप्रेतप्रदेशाप्ते-रुपायो निरुपद्रवः । सद्भिः प्रशस्यते मार्गः X X X ॥ ( त श्लो. १, १, ५) । ३. मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा । (पंचा. का.. श्रमृत. वृ. १७३) । ४. मार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयम् ॥
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