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मधुर गेय ]
व पद रहते हैं तथा जो सुनने में मनोहर होता है उस जिनवचन की मधुर माना जाता है । मधुर गेय - मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत् । (रायप. मलय. वृ. पृ. १३१) । जो कोयल के शब्द के समान मधुर स्वर से गाया जाता है उसे मधुर गेय कहते हैं । मधुर नाम -१ एवं सेसरसाणमत्थो वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गला महुररसेण परिणमति तं महुरणामं ) | ( धव. पु. ६, पृ. ७५) । २. यदुदयाज्जन्तुशरीरमिक्ष्वादिवद् मधुरं भवति तद् मधुरनाम । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ४०, पृ. ५१) ।
१ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल मधुर रस रूप से परिणत होते हैं उसे मधुरनामकर्म कहा जाता है।
८७७, जैन-लक्षणावली [मध्यम आत्मा मध्यगत अवधि - १ मज्झगयं से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिश्रं वा अलातं वा मणि वा पईवं वा जोइं वा मत्थए काउं समुव्वहमाणे २ गच्छिज्जा से तं मज्झगयं । ( नन्दी. सू. १०, पृ. ८२-८३) । २. इह मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत्, तत्रात्मप्रदेशानां मध्ये मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतः स्थितो मध्यगतः अयं च स्पर्द्धकरूपः सर्वदिगुपलम्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवधिरवसेयः । अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोशमभावेऽपि श्रीदारिकशरीर मध्य भागेनोरलब्धिः स मध्ये गतो मध्यगतः, X X X अथवा तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्र सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये मध्यभागे स्थितो मध्यगतः, अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्र मध्यवतित्वात् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ३३७ व ३३८ ) । ३. मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत्, ततो मध्ये गत मध्यगतम् इदमपि त्रिधा व्याख्येयम् --- आत्मप्रदेशानां मध्ये-मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु, गतम् - स्थितं मध्यगतम्, इदं च स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञान सर्व दिगुपलम्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवसेयम्, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽप्यौदारिकशरीर मध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् × × × अथवा तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतितं क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु, तस्य मध्ये मध्यभागे गतं स्थितं मध्यगतम्, अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् । (नन्दी. सू मलय. वृ. १०, पृ. ८३-८४) ।
१ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का ( छोटा दीपक), चलिका ( अन्त में जलते हुए तृणों की पूलिका), अलात (अग्रभाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप अथवा ज्योति ( शराब श्रादि में स्थित जलती हुई श्रग्नि) को मस्तक पर करके गमन करता हुआ सब दिशाओं को देखता है उसी प्रकार जिस अवधिज्ञान के द्वारा श्रवधिज्ञानी जीव सब दिशाओंों में देखता जानता है उसे मध्यगत अवधि कहा जाता है।
मधुरवचनता - देखो मधुर मधुरं रसवद् यदर्थतो विशिष्टार्थवत्तयाऽर्थावगाढत्वेन शब्दतश्चापरुषत्व-सौस्वयं गाम्भीर्यत्वादिगुणोपेतत्वेन श्रोतुराह्लादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा, तद्भावो मधुरवचनता। (उत्तरा. नि. शा. वू, ५८, पू. ३६ ) ।
जो रसयुक्त मधुर वचन अर्थ की अपेक्षा विशिष्ट अर्थ से संयुक्त व अर्थ से अधिष्ठित होने के कारण तथा शब्द की अपेक्षा कठोरता से रहित, सुन्दर स्वर से सहित व गम्भीरता श्रादि गुणों से संयुक्त होने के कारण श्रोता को श्रानन्द उत्पन्न किया करता है, इस प्रकार के स्वरूप वाला वचन जिन श्राचार्यों का होता है वे मधुरवचन कहे जाते हैं । यह मधुरवचनता उनकी ४-४ प्रकार की लाठ (४ X ८ = ३२ ) गणिसम्पदानों में से एक हैं। मधुस्रवी - हत्थक्खित्तासेसाहाराणं महु-गुड- सण्डसक्करासादसरूवेण परिणमणक्खमा महुसविणो जिणा । ( धव. पु. ६, पृ. १०१ ) । जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथों में रखे गए समस्त आहार मधु, गुड़, खांड और शक्कर शादि के स्वादस्वरूप से परिणत हो जाते हैं उसे मधुस्रवी ऋद्धि कहते हैं ।
मध्य – तयोः ( प्राद्यन्तयोः ) अन्तरं मध्यमुपचर्यते । (अनुयो. हरि. वृ. पू. ३२ ) । आदि और अन्त के अन्तर को मध्य कहा जाता है ।
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मध्यम श्रात्मा - देखो अन्तरात्मा । १. सिविणे वि
भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई । जइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो । ( रयणसार १४१) । २. सावयगुणेहि जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति । जिणवयणे अणुरत्ता उवसमसीला
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