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महाकाव्य ]
४, ५८० ) ।
१ जो निधि धान्य को दिया करती है उसका नाम महाकालनिधि है । २. जिस निधि में लोहा, चांदी, सोना, मणि, मोती, शिला (स्फटिक यादि) प्रौर प्रवाल (मूंगा) इनकी खानों की उत्पत्ति होती हैउसका कथन किया जाता है, उसे हाकालनिषि कहते हैं ।
८६७, जंन - लक्षणावली
महाकाव्य – १. महापुराणसम्बन्धि महानायकगोचरम् । त्रिवर्गफलसन्दर्भ महाकाव्यं तदिष्यते । ( म. पु. १ - ९९ ) । २. पद्यं प्रायः संस्कृत प्राकृतापभ्रंशाम्यताषानिबद्ध भिन्नान्त्यवृत्तसगश्वास - सन्ध्यवस्कन्धकबन्धं सत्संधिशब्दार्थ वैचित्र्योपेतं महाकाव्यम् । ( काव्यानु. ८, पृ. ३३० ); छन्दोविशेषरचितं प्रायः संस्कृतादिभाषानिबर्द्धभिन्नान्त्यवृत्तैर्यथासंख्यं सर्गादिभिनिर्मितं सुश्लिष्टमुख - प्रतिमुखगर्भविमर्श निर्वहणसन्धिसुन्दरं शब्दार्थवै चित्रयोपेतं महाकाव्यम् | ( काव्यानु. स्वो वृ. ८, पृ. ३३० ) । १ जो अतिशय प्राचीन महापुरुषों के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाला हो, महानायक (तीर्थंकर श्रादि) जिसका विषय ( श्रभिधेय) हो, और जिसमें धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ रूप त्रिवर्ग का सन्दर्भ ( प्रथन या वर्णन ) हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकुमुद चतुरशीति महावु मुदाङ्ग शतसहस्राभ्येकं महाकुमुदम् । (ज्योतिष्क मलय. वृ. ६८ ) । चौरासी लाख महाकुमुदांगों का एक महाकुमुद होता है । महाकुमुदाङ्ग चतुरशीतिकुमुदशतसहस्राण्येकं महाकुमुदाङ्गम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६८ ) । चौरासी लाख कुमुरों का एक जहाकुमुदांग होता है । महागङ्गा से जहा वा गंगा महानदी जम्रो पत्रढा, जहि वा पज्जुवत्थिया, एस णं श्रद्धा पंचजीवनसयाई श्रायामेणं, अद्धजोग्रणं विवखभेणं, पंचत्रणहपयाई उब्वेहेणं एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा । ( भगवती ३, १५, १३, पू. ३८१) ।
जिसमें गंगा नदी प्रवाहित हुई है-निकली हैव जहां वह समाप्त होती है यह मार्ग पांच सौ योजन लम्बा, प्राधा योजन विस्तृत और पांच सौ धनुष प्रमाण ऊंचा ( गहरा ) है । इस
प्रकार के
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[महात्रुटिताङ्ग
गंगा के प्रमाण से सात गंगाएं मिलकर एक महागंगा होती है ।
महातप-- १. मंदरपंतिप्पमुद्दे महोववासे करेदि सव्वे वि । चउसण्णाणबलेणं जीए सा महतवा रिद्धी । ( ति प ४- १०५४) २. सिंहनिःक्रीडितादिमहोपवासानुष्ठानपरायणा यतयो महातपसः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३ ) । ३. प्रणिमादिश्रट्टगुणोवेदो जलचारणा दिट्ठविचारणगुणालंकरियो फुरंत सरीरप्पहो दुविक्खीणलद्धिजुत्तो सव्वोसहिसरूवो पाणि-पत्तणिवदिदसव्वाहारे श्रमियसादसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थो सयलिहितो वि श्रणंतबलो आसी-दिट्ठिविलद्धिसमणि तत्ततवो सयलविज्जाहरो मदि-सुद प्रोहि मण्णपज्जवणाणेहि मुणिदतिहुवणदावारो मुणी महातवो णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ९९ ) । ४. सकलविद्याधारिणो मति श्रुतावधि - मन:पर्ययज्ञानावगतत्रिभुवनगतव्यापारा महातपसः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ५ पक्ष- मासोपवासाद्यनुष्ठानपरा महातपसः । । ( प्रा. योगिभ. टी. १५, पृ. २०३ ) ६. पक्ष मास - षण्मास वर्षोपवास+ विधातारः ये मुनयस्ते महातपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव मतिज्ञानादि चार सम्यग्ज्ञानों के बल से मंदरति श्रादि सभी महान् उपवासों को करता है उसे महातप ऋद्धि कहते हैं । इस ऋद्धि के धारक महातप ( महातपस्वी ) कहलाते हैं ।
महात्मा - अनन्तज्ञान-वीर्ययुक्तत्वान्महानात्मा यस्य स महात्मा । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ५) ।
अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य से युक्त होने के कारण जिसकी श्रात्मा महान् है उसे महात्मा कहा जाता है ।
महात्रुटितक - चतुरशीतिमहात्रुटिताङ्ग शतसहत्राण्येकं महात्रुटितकम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ६९) ।
चौरासी लाख महात्रुटियों का एक महात्रुटिक होता है ।
महात्रुटिताङ्ग- चतुरशीतित्रुटितशतसहस्राण्येकं महात्रुटिताङ्गम् । (ज्योतिष्क मलय. वृ. ६६)
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