________________
मनःपर्याप्ति] ८८६, जैन-लक्षणावली
[मनुष्यगतिनाम नुस्मरणप्रणिधानलक्षणभावमन:परिणमनशक्तिनिष्प- शिष्यस्य सम्बन्धिनः सुहृदादेः सम्मुखं सूरिणा किमत्तिर्मन:पर्याप्तिः । (गो. जी. जी. प्र. ११६; प्यप्रियमुक्तं भवतीत्येवंप्रकारैरन्यैरपि स्व-परप्रत्ययः कातिके. टी. १३४)। १४. येन कारणेन चतुर्विध- कारणान्तरैर्मनसः प्रद्वेषो भवति यत्र तन्मनसा मनोयोग्य द्रव्याणि गृहीत्वा मनसः मननसमर्थः स्या- प्रदुष्टमुच्यते । (प्राव. हरि. व. मल. हेम. टि, पृ. त्तस्य करणस्य निष्पत्तिर्मन:पर्याप्तिः । (भगवती. ८८; प्रव. सारो. वृ. १६०)। २. मनसा प्रदुष्टम् दा. वृ. ६, ४, ६२) । १५. यया मनोवर्गणादलिक- -शिष्यस्तत्सम्बन्धी वा गुरुणा किञ्चित् परुषमादाय मनस्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मनःसमर्थो मभिहितो यदा भवति तदा मनसो दूषितत्वाद् भवति सा मनःपर्याप्तिः । (विचारस. ४३)। १६. मनसा प्रदुष्टम्, यद्वा वन्द्यो हीनः केनचिद् गुणेन दलं लात्वा मनोयोग्यं तत्तां नीत्वाऽवलम्ब्य च। ततोऽहमेवंविधेनापि वन्दनं दापयितुमारब्ध इति यया मननशक्तः स्यान्मनःपर्याप्तिरत्र सा। (लोकप्र. चिन्तयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३,. ३-३०)।
१३०) । १ मनरूप होने के योग्य द्रव्य के ग्रहण और त्याग १ मनःप्रद्वष अनेक निमित्तों से उत्पन्न होता है। की शक्ति जिस क्रिया से निर्मित होती है उसकी वह सब ही प्रात्मप्रत्यय से व परप्रत्यय से होता समाप्ति का नाम मनःपर्याप्ति है, ऐसा किन्हीं का है। प्रात्मप्रत्यय से जैसे-जब गुरु ने केवल शिष्य मत है। ४ अनुभूत पदार्थों के स्मरण की शक्ति से कुछ कठोर वचन कहे, परप्रत्यय जैसे—उसी का निमित्तभूत जो मनोवर्गणा के स्कन्धों से पुत्- शिष्य के सम्बन्धी मित्र आदि के समक्ष जब गुरु ने गलसमूह उत्पन्न होता है उसे मनःपर्याप्ति कहते कुछ कठोर वचन कहा, इत्यादि प्रकारों से तथा हैं। अथवा द्रव्य मन के पालम्बन से जो मनभत अन्य कारणों से भी जो शिष्य के मन में द्वेष होता पदार्थों के स्मरण की शक्ति उत्पन्न होती है उसे है उसे मनःप्रदुष्ट कहते हैं। मनःपर्याप्ति जानना चाहिए।
मनु-देखो कुलकर । १. जादिभरणेण केई भोगमनःपर्यायज्ञान-देखो मनःपर्ययज्ञान ।
मणुस्साण जीवणोवायं । भासंति जेण तेणं मणुणो मनःपर्यायज्ञानलब्धि-मनःपर्यायज्ञानलब्धिर्मनो- भणिदा मुणिदेहिं ॥ (ति. प. ४-५०८)। २. आद्यद्रव्यप्रत्यक्षीकरणशक्तिः । (योगशा. स्वो. विव. संस्थान-संघात-गम्भीरोदारमूर्तयः । स्वपूर्वभववि१-६)।
ज्ञाना मनवस्ते चतुर्दश । (ह. पु. ७-१७३) । मन द्रव्य के साक्षात्कार करने की जो शक्ति है उसे कोई जातिस्मरण के द्वारा भोगभूमि के मनुष्यों मनःपर्यायज्ञानलब्धि कहा जाता है।
को प्राजीविका का उपाय बतलाते हैं, इससे उन्हें मनःपर्यायज्ञानावरण - देखो मन:पर्ययज्ञाना- मनु कहा गया है । वरण।
मनुज-मानुषीसु मैथुनसेवकाः मनुजा नाम । मनःप्रणिधान-देखो नोइन्द्रियप्रणिधि । णो- (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। इंदियपणिधाणं कोहे माणे तदेव मायाए। लोहे य जो मनुष्यनियों में मैथुन सेवन किया करते हैं णोकसाए मणपणिधाणं तु तं वज्जे। (मूला. ५, उनका नाम मनुज है । १०३)।
मनुष्यगतिनाम-१. अशेषमनुष्यपर्याय निष्पादिक्रोध, मान, माया और लोभ तथा नोकषाय के का मनुष्यगतिः । अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितविषय में जो मन की प्रवृत्ति होती है उसे नोइन्द्रियः मनुष्यपर्यायकलापः कार्य कारणोपचारान्मनूष्य. प्रणिधान या मनःप्रणिधान कहते हैं।
गतिः। अथवा मनसा निपुणाः मनसा उत्कटा इति मनःप्रदुष्टवन्दन-देखो मनोदुष्टदोष । १. मन:- वा मनुष्याः, तेषां गतिः मनुष्य गतिः । (धव. पु. १, प्रद्वेषोऽनेकोत्थान:-अनेकनिमित्तो भवति, स च पृ. २०२-३); जस्स कमस्स उदएण मणुयसर्वोऽपि प्रात्मप्रत्ययेन परप्रत्ययेन वा स्यात्, तत्रा- भावो जीवाणं होदि, तं कम्मं मणुसगदि त्ति उच्चदि त्मप्रत्ययेन यदा शिष्य एव गुरुणा किञ्चित् परुष- कारणे कज्जुवयारादो। (धव. पु. ६, पृ. ६७); मभिहितो भवतीति, परप्रत्ययेन तु यदा तस्यैव .जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं णिबत्तयं तं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org