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भावदेव] ८४४, जन-लक्षणावली
[भावनिक्षेप श्लोक आदि से रचित श्रुतज्ञान रूप भावदीप है भावनमस्कार-नमस्कारकर्तव्यानां गुणानुरागो उसे संयोगिम भावदीप तथा अन्य किसी की भावनमस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. ७२२)। अपेक्षा न करने वाले केवलज्ञानरूप भावदीप को जो प्राप्त प्रादि नमस्कार करने के योग्य हैं उनके असंयोगिम भावदीप कहा जाता है।
गुणों में जो अनुराग होता है उसे भावनमस्कार भावदेव-जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय- कहते हैं। वेमाणिया देवा देवगइ-नामगोयाई कम्माई वेति से भावना-----१. भाव्यते इति भावना, भावना ध्यानातेणठेणं जाव भावदेवा। (भगवती. १२, १.२. भ्यासक्रियेत्यर्थः । (ध्यानश. हरि. व. २)। २. पृ. १७६६)।
अणुव्रतस्य चोपरि बन्ध-वघादिकातिचारपरिहाररूपा जो भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमा. वक्ष्यमाणा अपायावद्यदर्शनादिकाश्च सामान्यरूपाः निक देव देवगति नामगोत्र कमों का वेदन करते महाव्रतं चोपभोगा (वर्गा ?) भिलाषिभिः प्राणिहैं वे भावदेव कहलाते हैं।
भिति-संहननपरिहाण्या प्रमादबहुलैः दूरक्षमतस्तभावद्रव्य--१. भावतो द्रव्याणि धर्मादीनि सगुण
त्प्रतिपातपरिहारार्थ भाव्यन्त इति भावनाः । (त. पर्यायाणि प्राप्तिलक्षणाणि Xxx (त. भा.
भा. सिद्ध. वृ. ७-३)। ३. वीर्यान्तरायक्षयोपशम.
चारित्रमोहोपशम-क्षयोपशमापेक्षेणात्मना भाव्यन्ते१-५) । २. अथवा भावद्रव्य मिति-द्रव्यार्थ उप
ऽसकृत्प्रवर्त्यन्ते इति भावनाः। (भ. प्रा. विजयो. युक्तो जीवो भावद्रव्यमुच्यते । (त. भा. सिद्ध. वृ.
११८५)। ४. भावना निरुपाधिको जीववासक: १-५, पृ. ५०)।
परिणामः । (ध. बि. मु. वृ. ६-२७)। ५. भाव्य१ भावनिक्षेप से प्राप्ति लक्षण (परिणमन स्वभाव)
न्ते वास्यन्ते गुणविशेषमारोप्यन्ते महाव्रतानि यकावाले गुण-पर्याय युक्त धर्मादि द्रव्य ग्रहण किये
भिस्ता भावना: । (योगशा. स्वो. विव. १-२५) । जाते हैं। २ द्रव्य के अर्थ में उपयुक्त जीव को
६. रत्नत्रयघरेष्वेका भक्तिस्तत्कार्यकर्म च । शुभभव्यद्रव्य कहा जाता है।
कचिन्ता संसारजुगुप्सा भावना भवेत् ॥ (त्रि. श. भावधर्म-१. प्रशमादिलिङ्गगम्यो जीवस्वभावलक्षणो भावधर्मः । (धर्मसं. मलय. वृ. ३४)। १ ध्यान के अभ्यास की क्रिया को भावना कहते हैं । २ स च क्षायोपशमिकादिकशुभलेश्यापरिणामविशे- २ प्रणवत के ऊपर बन्ध-बधादि अतिचार के परिपाहानादी सर्वत्र स्वारसिक: चित्तसमुल्लास एव हाररूप एवं अपाय व अवध के दर्शनादिरूप भावधर्म उच्यते । यदाह---दाने शीले तपसि च सामान्य तथा जो धैर्य व संहनन की हानि से यत् स्वारसिको मनःसमुल्लासः । शुभलेश्यानन्दमयो प्रमाद की अधिकता से युक्त होते हुए उपभोग के भवत्यसो भावधर्म इति ॥ (गु. ग. षट्. स्वो. वृ. अभिलाषी प्राणी हैं उनके द्वारा दूरक्ष महाव्रत से २, पृ. ७)।
भ्रष्ट न होने के लिए जो भायी जाती हैं उन्हें १ जो प्रशम प्रादि चिह्नों के द्वारा जाना जाता है भावना कहा जाता है। जीव के स्वभावभूत उसे भावधर्म कहते हैं। २ भावनायोग-सर्वपरभावान् अनित्यादिभावनया क्षायोपशमिकादि रूप शुभलेश्या परिणामविशेष से विबुध्य अनुभवभावनया स्वरूपाभिमुखयोगवृत्तिमध्यजो दानादि कार्यों में मन को उल्लास या हर्ष होता स्थः आत्मानं मोक्षोपाये युजन् भावनायोगः । (ज्ञा. है उसे भावधर्म कहा जाता है।
सा. वृ. ६-१)। भावनपुंसक-नपुंसकवेदोदयेन उभयाभिलाषरूप- समस्त पर भावों को प्रनित्यादि भावना के द्वारा मैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावनपुंसकम् । (गो. जी. जानकर अनुभव भावना से प्रात्मस्वरूप के अभिजो. प्र. २७१)।
मुख योगवृत्ति के मध्य में स्थित होकर प्रात्मा को नपुंसक वेद के उदय से उभय (स्त्री-पुरुष) को जो मोक्षमार्ग में लगाता है, इसे भावनायोग कहते अभिलाषा रूप जो मैथुन संज्ञा होती है उससे युक्त हैं। जीव को भावनपुंसक कहते हैं।
भावनिक्षेप-१. वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं
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