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भावार्त] ८५८, जन-लक्षणावली
[भावाहार हुना, पराङ्मुख होता हुमा, अलंकारयुक्त अथवा भावत एवम्भूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः। (भ. अलंकारों से रहित दाता यदि देगा तो ग्रहण प्रा. विजयो. १९५०)। करूंगा; इस प्रकार के अभिप्रायों में किसी भी जो साधु का वेष धारण करके शुद्ध चारित्र से अभिप्राय से युक्त भावाभिग्रह होता है।
रहित होता हुआ उपकरण, वसति व संस्तर के भावार्त्त-क्रोधादिभिरभिभूतो भावार्तः । (बृहत्क. प्रतिलेखन में; स्वाध्याय में, विहारभूमि के शोधन भा. क्षे. वृ. १२५१)।
में, गोचारशद्धि में, ईर्यासमिति प्रादि में, स्वा. जो क्रोधादि कषायों से पीड़ित है वह भावात कह- ध्याय की समाप्ति में तथा गोचर में प्रयत्नशील लाता है।
नहीं रहता है; अावश्यकों के परिपालन में प्रालस भावा-१.xxx भावेणं होइ रागडें ॥ करता है या होनाधिक रूप में करता है तथा वचन (सूत्रकृ. नि. २, ६, १८५)। २. भावा व काय से करता हुआ भी उसे मन से नहीं करता तु पुनः राग:-स्नेहोऽभिष्वङ्गस्तेनार्द्र यज्जीवद्रव्यं हैं। इस प्रकार से जो चारित्र में खिन्न रहता है तद्भावामित्यभिधीयते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. २, उसे भावावसन्न साधु जानना चाहिए। ६, १८५)।
भावात्रव-१. भावास्रवास्तु ते (आत्मसमवेताः १ राग का अर्थ स्नेह या प्रासक्ति है, उससे जो पुद्गलाः) एवोदिताः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, जीव द्रव्य प्रार्द्र (भीगा हुआ) है उसे भावार्द्र कहा पृ. ४६) । २. मिच्छत्ताइचउक्कं जीवे भावासवो जाता है।
भणियं ।। (द्रव्यस्व. प्र. नयच. १५२) । ३. प्रासभावावग्रह-चउरो प्रोदइअम्मी, खग्रोवसमियम्मि वदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेयो। पच्छिमो होइ। मणसी करणमणुन्नं, च जाण जं भावासमो जिणुत्तो xxx ॥ (द्रव्यसं २६) । जत्थ ऊ कमइ ॥ भावोग्गहो अहव दहा, मइ-गहणे ४. कर्मास्रवनिर्मलनसमर्थशुद्धात्मभावनाप्रतिपक्षमतेन अत्थ-वंजणे उ मई। गहणे जत्थ उ गिण्हे, 'मणसी येन परिणामेनास्रवति कर्म, कस्य? आत्मनः स्वस्य, कर' अकरणे तिविहं । (बृहत्क. भा. ६८४-८५)। स परिणामो भावानवो विज्ञेयः । (बु. द्रव्यसं. टी. देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गहपति-अवग्रह, सागारिक- २६) । ५. निरास्रवशुद्धात्मपदार्थ विपरीतो रागअवग्रह और सार्धामक अवग्रह इन पांच अवग्रहों में देष-मोहरूपो जीवपरिणामो भावानवः । (पंचा. से चार तो 'यह मेरा क्षेत्र है' इत्यादि प्रकार की का. जय. वृ. १०८)। ६. उदयोदीरणाकर्मद्रव्यामूर्छा रहने के कारण प्रौदयिक भाव के अन्तर्गत स्रवो यतः (?) । स्यान्नूत्न (?) द्रव्य-भाव! भावहैं तथा अन्तिम (पांचवां) कषायमोहनीय के क्षयो- द्रव्यास्रवाः क्रमात् । (प्राचा. सा. ३-३०)। पशम से मूर्छा न होने के कारण क्षायोपशमिक ७. आद्यो जीवात्मको भाव: xxx॥ (जम्बू. भाव के अन्तर्गत है। यह भावाग्रह है। भावाग्रह च. ३-५३); तत्र रागादयो भावाः कर्मागमनमति और ग्रहण के भेद से दो प्रकार का है। हेतवः ॥ तस्माद्भावाश्रवो ज्ञेयो रागभावः शरीरिइनमें मतिप्रवग्रह प्रर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह के णाम् । (जम्बू. च. १३, १००-१)। भेद से दो प्रकार का है। जिस देवेन्द्रावग्रह आदि १मात्मा में समवाय को प्राप्त हुए वे ही कर्मरूप में साधु जब किसी सचित्त, अचित्त या मिश्र वस्तु पुदगल उदय को प्राप्त होने पर भावानव कहलाते को ग्रहण करता है तब वह ग्रहणभावावग्रह कह- हैं। २ जीव में जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय लाता है।
और योग ये चार विद्यमान रहते हैं उन्हें भावात्रव भावावसन्न - भावावसन्नोऽशुद्धचरित्रः सीदति कहते हैं। उपकरणे वसति-संस्तरप्रतिलेखने स्वाध्याये विहार- भावाहार-भावाहारस्त्वयम्-क्षुधोदयाद् भक्ष्यभूमिशोधने गोचारशुद्धौ ईसिमित्यादिषु स्वाध्याय- पर्यायापन्नं वस्तु यदाहरति स भावाहारः । (सूत्रकृ. कालावलोकेन स्वाध्यायविसर्गे गोचरे चान्द्यतः नि. शी. व. २, ३, १६६, पृ.८७)। आवश्यकेष्वलसः जनातिरिक्तो वा जनाधिकं करोति क्षुधा के उदय से भक्ष्य अवस्था को प्राप्त वस्तु को कुर्वश्च यथोक्तमावश्यकं वाक्कायाभ्यां करोति न जो ग्रहण किया जाता है उसे भावाहार कहते हैं ।
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