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भावसामायिक ]
णिउणस्स छदव्वविसनो बोहो बाहबिवज्जिओ प्रक्वलि भावसामाइयं णाम । ( जयध. १, पृ. ६८) । ३. सर्वजीवेषूपरि मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं भावसामायिकं नाम । (मूला. वू. ७-१७ ) । ४. आत्मनीव परदुःखाकरणपरिणामो भावसाम, तथा राग-द्वेषमाध्यस्थ्यम् अनासेवनया राग-द्वेषमध्यवर्तित्वम्, सर्वत्रात्मनस्तुल्यरूपेण वर्त्तनं भावसमम् XXX I ( श्राव. नि. मलय. वु. १०४५, पृ. ५७५ ) । ५. भावसामायिकं सर्वजीवेषु मैत्री भावोऽशुभपरि - णामवर्जनं वा । X X X वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः, तस्य सामायिकं भावसामायिकम् । (अन. ध. स्वो टी. ८-१६, पृ. ५५२-५३ ) । ६. भावस्य जीवादितत्त्वविषयोपयोगरूपस्य पर्यायस्य मिथ्यादर्शन - कषायादिसंक्लेशनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रोपयोगयुक्तज्ञायकः तत्पर्यायपरिणतसामायिकं वा भावसामायिकम् । (गो. जी. जी. प्र. ३६७ ) । ७. णामभावस्स जीयादितच्चविसयुवयोगरूवस्स पज्जायस्स मिच्छादंसण-कसायादिसं किलेसणियट्टी सामाइयसत्युपयुत्तणायगो तप्पज्जायपरिणदं सामाइयं वा भावसामाइयं । (प्रंगप. पू. ३०६ ) । १ प्रपने समान दूसरों को दुखित न करने का अभिप्राय रखना तथा राग-द्वेष के मध्य में स्थित रहना - न इष्ट से राग करना और न अनिष्ट से द्वेष करना, इसका नाम भावसाम या भावसामाfor है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ( रत्नत्रय) रूप जो समीचीन भाव है उसका श्रात्मा में प्रवेश कराना, इसे भावसामायिक जानना चाहिए। २ जिसने समस्त कषायों को रोककर मिथ्यात्व का वमन कर दिया है--उसे नष्ट कर दिया हैं - तथा जो नयों के व्यवहार में कुशल है ऐसे जीव के जो निर्बाध व स्खलित छह द्रव्यविषयक बोध होता है उसका नाम भावसामायिक है । भावसिद्ध- प्रदइयाई भावे, प्रत्थेणं सव्वहा खवि - ताणं । साहियवं जं खतियं, भावं तो भावसिद्धी उ ॥ ( सिद्धप्राभृत ५ ) ।
जिसने श्रदयिक श्रादि भावों को सर्वथा नष्ट करके केवलज्ञान- दर्शनादिरूप क्षयिक भाव को सिद्ध कर लिया है उसे भावसिद्ध कहते हैं । भावसेवा-दर्पः प्रमादः श्रनाभोगः भयं प्रदोष इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा । (भ. प्रा.
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८५६, जैन - लक्षणावली
[भावागम
विजयो. ४५० ) ।
प्रभिमान, प्रमाद, असावधानी, भय और प्रदोष (द्वेष) इन परिणामों में जो प्रवृत्ति होती हैं उसे भावसेवा कहते हैं । भावस्तव - १. x x x संतगुणकित्तणा भावे ॥ ( श्राव. भा. १६३, पृ. ५६० ) । २. तेसि जिणाण
तणाण- दंसण विरिय सुह-सम्मत्तव्वाबाह- विरायभावादिगुणाणुसरण - परूवणात्रो भावत्थश्रो णाम । ( जयध. १, पृ. १११) । ३. केवलज्ञान- केवलदर्श नादिगुणानां स्तवनं भावस्तव: । (मूला. वृ. ७, ४१) । ४. वर्ण्यन्तेऽनन्यसामान्या यत्कैवल्यादयो गुणाः । भावकैर्भावसर्वस्वदिशां भावस्तवोऽस्तु सः ॥ ( श्रन. ध. ८-४४ ) । ५. भावविषयो भावस्तवः । ( श्राव. भा. मलय. वृ. १६३, पृ. ५६० ) । १ विद्यमान गुणों का कीर्तन करना, इसका नाम भावस्तव है । २ तीर्थंकरों के अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, सम्यक्त्व, अव्याबाध और विरागता श्रादि गुणों के स्मरण व प्ररूपण करने को भावस्तव कहा जाता है । भावस्त्री- स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावस्त्री । (गो. जी. जी. प्र. २७१) 1
जो जीव स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषारूप मैथुन संज्ञा से पीड़ित हो उसे भावस्त्री कहते हैं ।
भावस्नान-ध्यानाम्भसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्विकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते ॥ ( श्रष्टक. हरि. २ - ६) |
जो कर्मरूप मैल का आश्रय लेकर सदा शुद्धि का कारण है ऐसा जो जीव का ध्यानरूप जल से स्नान है उसे भावस्तान कहा जाता है । भावस्पर्श - १. जो सो भावफासो णाम । उवजुत्तो पाहुडजाणश्री सो सव्वो भावफासो नाम ॥ ( षट्खं. ५, ३, ३१-३२ - पु. १३, पृ. ३५) । २. फासपाहुडं णादूण जो तत्थ उवजुत्तो सो भावफासोत्ति घेत्तव्वो । ( धव. पु. १३, पृ. ३५) 1 १ जो स्पर्शप्राभूत का ज्ञाता होकर उसके विषय में उपयोगयुक्त हो उसका नाम भावस्पर्श है । भावागम - तेषामेव पञ्चानां (जीवाद्यस्तिकायानाम्) मिथ्यात्वोदयाभावे सति संशय-विमोह-विभ्रम
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