________________
भाविप्रतिक्रमण] ८६०, जैन-लक्षणावली
[भावेन्द्रिय जो अन्तरप्राभृत के ज्ञान से रहित हैं उसे भावी नो कहलाता है। इन्द्र के अधिकार को-शब्दार्थ को आगमद्रव्यान्तर कहते हैं।
----जो जानता है और तद्विषयक उपयोग से सहित भाविप्रतिक्रमण – चारित्रमोहक्षयोपशमसान्निध्ये हो उसे भाव-इन्द्र जानना चाहिए। भविष्यत्प्रतिक्रमणपर्याय श्रात्मा भाविप्रतिक्रमणम्। भावेन्द्रिय-१. लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । (त. भ. प्रा. विजयो. ११६)।
सू. २-१८; धव. पु. १, पृ. २३६) ॥ २. लब्ध्यु पचारित्रमोहनीय का क्षयोपशम होने पर जो जीव योगौ भावेन्द्रियम्---अर्थग्रहणशक्तिः लब्धिः, उपयोगः आगे होने वाली प्रतिक्रमण पर्याय से परिणत होने पुनरर्थग्रहणव्यापारः । (लघीय. स्वो. विव. ५, पृ. वाला है उसे भावी प्रतिक्रमण कहते हैं।
११५)। ३. श्रोत्रेन्द्रियादिविषया सर्वात्मप्रदेशानां भाविव्रत-चारित्रमोहस्य क्षयात् क्षयोपशमाद्वा तदावरणक्षयोपशमलब्धिरूपयोगश्च भावेन्द्रियम् । यस्मिन्नात्मनि भविष्यन्ति विरतिपरिणामाः स भा. (नन्दी. हरि. वृ. पृ. २०)। ४. भावेन्द्रियं तु विव्रतम् । (भ. प्रा. विजयो. ११८५)।
क्षयोपशम उपयोगश्च । (ललितवि. पृ. ३९)। चारित्रमोह के क्षय या क्षयोपशम से जिस प्रात्मा ५. भावेन्द्रियाणि तु भावात्मकान्यात्मपरिणतिरूपामें आगे विरतिरूप परिणाम होने वाले हैं उसे भावी- णीति । (त. भा. सिद्ध. व. २-१६); लब्ध्युपयोगी व्रत कहते हैं।
भावेन्द्रियम्-लब्धिः प्रतिस्वमिन्द्रियावरणकर्मक्षयोभाविसामायिक-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशे- पशमः, स्वविषयव्यापारः प्रणिधानं वीर्यमुपयोगः, षसहायो य आत्मा भविष्यत्सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति- एतदुभयं भावेन्द्रियमात्मपरिणतिलक्षणं भवति । परिणामः सोऽभिधीयते भाविसामायिकशब्देन । (भ. (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१८)। ६. भावेन्द्रियं नाम प्रा. विजयो. ११६)।
ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोपलब्धिः, द्रव्येन्द्रियनिमिचारित्रमोहनीय के क्षयोपशम के प्राश्रय से जो जीव तरूपाद्युपलब्धिश्च । (भ. प्रा. विजयो. ११५); आगामी काल में समस्त सावद्ययोग की निवृत्तिरूप भावेन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियजनितो रूपापरिणाम से युक्त होने वाला है उसे 'भावीसामा- धुपयोगश्च । (भ. प्रा. विजयो. ३१३)। ७. लब्धियिक' शब्द से कहा जाता है।
स्तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतम् । (त. सा. भाविसिद्ध-भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो जीवो भावि- २-४४)। ८. मदिनावरणखोवसमुत्थविसुद्धी हु सिद्धः । (भ. प्रा. विजयो. १)।
तज्जबोहो वा। भाविदियं तु xxx ॥ (गो. जिस जीव को आगे सिद्धत्व पर्याय प्राप्त होने जी. १६५)। ६. आत्मप्रदेशावरणक्षयोपशमरूपं वाली है उसे भावीसिद्ध कहा जाता है। भावेन्द्रियम् । (सिद्धिवि. वृ. ८-२६, पृ. ५७०)। भावी अर्हन-देखो भाव्यर्हन् ।
१०. भावेन्द्रियं तु लब्ध्युपयोगात्मकम् । (प्र. क. भावेन अनुयोग - भावेनानुयोग: संग्रहादीनां मा. २-५, पृ. २२६)। ११. लब्धिः सदोपयोगश्च पञ्चानामध्यवसायानामन्यतरेणाध्यवसायेन योऽनु- स्याद् भावेन्द्रियमात्मनः । (प्राचा. सा. ४-२७)। योगः । (प्राव. नि. मलय. व. १२६, पृ. १३२)। १२. xxx इयरं पूण, लदधूवप्रोगेहि नाय संग्रह आदि (संग्रहार्थता, उपग्रहार्थता, निर्जरार्थता, (गु. ग. षट्. स्वो. वृ. १५, उद्.)। १३. जन्तोः श्रतपर्यवजात और अब्यवच्छित्ति) पांच अध्यव- श्रोत्रादिविषयस्तत्तदावरणस्य यः। स्यात् क्षयोपशमो सायों में से किसी एक अध्यवसाय (अभिप्राय) के लब्धिरूपं भावेन्द्रियं हि तत् ॥ स्व-स्वलब्ध्यनुसारेण द्वारा जो ब्याख्या की जाती है उसे भावेन अनुयोग विषयेषु य आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं भवेद् कहा जाता है।
भावेन्द्रियं च तत् ।। (लोकप्र. ३, ४८०-८१)। भावेन्द्र-जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धनयाणं तु एस १ लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। भाविदो। इंदस्स व अहिगारं, वियाणमाणो तव. २. अर्थ के ग्रहण करने की शक्ति का नाम लब्धि उत्तो ॥ (बृहत्क. भा. १५)।
और अर्थग्रहण के प्रति जो ब्यापार होता है उसका जो परमैश्वर्यरूप यथावस्थित अर्थ से सहित हो वह नाम उपयोग है, इन दोनों को भावेन्द्रिय कहा शुद्ध नयों-शब्दादि नयों के अनुसार भाव-इन्द्र जाता है। ३ समस्त प्रात्मप्रदेशों सम्बन्धी श्रोत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org