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भूयस्कार बन्ध ]
भूयस्कार बन्ध - देखो भुजाकार बन्ध । यदा स्तोकाः प्रकृती राबध्नन् परिणामविशेषतो भूयसी: प्रकृतीर्बध्नाति यदा सप्त बद्ध्वा अष्टौ बध्नाति यद्वा षट् एकां च बद्ध्वा सप्त, तदा स बन्धो भूयस्कारः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. ५२ ) ।
जब थोड़ी प्रकृतियों को बांघता हुआ परिणाम विशेष से 'बहुत प्रकृतियों को बांधता है, जैसे- सात को बांध कर ग्राठको, अथवा छह या एक को बाँधकर सात को, तब वह भूयस्कार बन्ध कहलाता है । भृङ्गारमुद्रा पराङ्मुखहस्ताभ्यामङ्गुलीविद मुष्टिबध्वा तर्जन्यो समीकृत्य प्रसारयेदिति भृङ्गारमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. ३३ ) । उल्टे दोनों हाथों द्वारा अंगुलियों को विदर्भत करके व मुट्ठी बांध करके दोनों तर्जनियों को समान करे व फैला दे । इस प्रकार से भृंगारमुद्रा होती है ( ? ) । भृत, भृतक - १. त्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः कर्म्मकरः । ( स्थाना. २७१, पू. २०३) । २. भृतको वस्त्र भोजनादिमूल्येन परस्य दास्यं गतः । (श्रा. बि. पू. ७४) । ३. भृतको वृत्तिकिङ्करः । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. २२, पृ. ५३ ) । १ जिसका भरण-पोषण किया जाता है वह स्वामी की अनुकम्पा से युक्त सेवक भूत या भूतक कहलाता है ।
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८६६, जैन-लक्षणावली
भेण्ड कर्म - भेंडो सुपसिद्धो, तेण घडिदपडिमाओ भेंडकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २५० ); भेंडमोएण ( ? ) घपिडिमा भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १३, पृ. १० ) ; भेंडेसु घडिदपडिमा भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २०२ ) ; भेंडेहि घडिदरुवाणि भेंडकम्माणि णाम । ( धव. पु. १४, पू. ६) ।
भेण्ड से निर्मित प्रतिमानों को भेण्डकर्म कहते हैं । भेद – १. समणिद्धदा समल्हुक्खदा भेदो । ( षट्खं ५, ६, ३३ – पु. १४, पृ. ३० ) । २. संघातानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेद: । ( स. सि. ५ - २६ ) । ३. संहतानां द्वितयनिमित्तवशात् विदारणं भेदः । बाह्याभ्यन्तरविपरिणामकारणसन्निधाने सति संहतानां स्कन्धानां विदारणं नानात्वं भेद इत्युच्यते । (त. बा. ५, २६, १) । ४. खंधाणं विहडणं भेदो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १२१ ) । ५. भेदः स्वामिनः
[भोक्तृत्व
पदातीनां च स्वामिन्य विश्वासोत्पादनम् । ( विपाक. श्रभय. वृ. पू. ३६ ) ; भेद: नायक-सेवकयोश्चित्तभेदकरणम् । ( विपाक. अभय वृ. पू. ४२ ) ।
१ समान स्निग्धता और समान रूक्षता का नाम भेद है । ३ प्रभेद को प्राप्त हुए स्कन्ध जो बाह्य व अभ्यन्तर निमित्त के वश विभक्त होते हैं इसका नाम भेद है । ५ स्वामी और पादचारी सैनिकों के मध्य में भेद उत्पन्न करना- उनका स्वामी के विषय में अविश्वास उत्पन्न करना, इसका नाम भेद है । भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक – गुणगुणिन याइच उक्के प्रत्थे जो जो करेइ खलु भेयं । सुद्धो सो दव्वत्थो भेदवियप्पेण णिरवेक्खो । ( नयच. दे. ३०, द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६२ ) ।
गुण-गुणी प्रादि ( स्वभाव-स्वभाववान्, पर्याय- पर्यायी और धर्म- धर्मी) चतुष्टयरूप अर्थ में जो भेद को नहीं करता है वह भेद के विकल्प से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है ।
भेदकल्पनासापेक्ष श्रशुद्धद्रव्यार्थिक- भेए सदि संबंधं गुण-गुणियाईहि कुणइ जो दव्वे । सो वि असुद्धो दिट्ठो सहिम्रो सो भेदकप्पेण 11 (नयच. दे. २३; द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६५ ) ।
जो नय भेद के होने पर गुणी-गुणी श्रादि के द्वारा द्रव्य में सम्बन्ध को करता है वह भेदकल्पना से सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहलाता है । भेदव्यवहार — देखो अपोद्धारव्यवहार । भेदसंघात - भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंघादो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १२१ ) । भेद को प्राप्त होकर फिर से संयोग को प्राप्त होना, इसका नाम भेदसंघात है ।
भोक्ता श्रमर - णर- तिरिय णारयमेएण चउव्विहे संसारे कुसलमकुसलं भुंजदित्ति भोत्ता । (घव. पु. १, पृ. ११९ ) ; चतुर्गतिसंसारे कुसलमकुसलं भुंक्ते इति भोक्ता । ( धव. पु. ६, पृ. २२०-२१) । देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के प्रकार के संसार में कुशल अकुशल के को भोक्ता कहते हैं ।
भेद से चार
भोगने वाले
भोक्तृत्व - कर्तृत्वादेव च भोक्तृत्वं स्वप्रदेशव्यवस्थितशुभाशुभकर्म कर्तृत्त्वात् XXX भोक्तृत्वं मदि
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