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भावागमकर्म 1
रहितत्वेन सम्यगवायो बोधो निर्णयो निश्चयो ज्ञानसमयोऽर्थ परिच्छित्तिर्भावश्रुतरूपो भावागम इति यावत् । (पंचा. का. जय. वृ. ३) । fararea कर्म के उदय का प्रभाव हो जाने पर जो जीवादि पांच अस्तिकायों का संशय, अनध्यवसाय और विपरीत ज्ञान से रहित यथार्थ बोध होता है उसे भावागम कहा जाता है । भावागमकर्म - देखो श्रागमभावकर्म ।
भावागार चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्धं प्रत्यनिवृत्तः परिणामो भावागारमित्युच्यते । (स. सि. ७-१९) ।
चारित्रमोह का उदय रहने पर जो परिणाम घर की प्रोर से निवृत्त नहीं होता है-उसके विषय में अनुरागरूप रहता है - उसे भावागार कहते हैं । भावाग्नि- १. उदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ तदुवोगेणं । भावो चरित्तमादी, तं डहई तेण भावग्गी ।। (बृहत्क. भा. २१५० ) । २. 'वेद' स्त्री - वेदादिरुदयं प्राप्तः सन् तस्य स्त्रीवेदादेः सम्बन्धी य उपयोग :- पुरुषाभिलाषादिलक्षणस्तेन हेतुभूतेन भावाग्निर्भवति । कुतः इत्याह- भावश्चारित्रादिकः परिणामः तं भावं येन कारणेन दहति तेन भावाग्निरुच्यते, 'भावस्य दाहकोऽग्निर्भावाग्निः' इति व्युत्पत्तेः । (बृहत्क. क्षे. वृ. २१५० ) ।
१ उदय को प्राप्त वेद ( स्त्रीवेद श्रादि ) तद्विषयक उपयोग से -- पुरुषादिविषयक अभिलाषा के द्वाराचूंकि चारित्र श्रादिरूप भाव (परिणाम) को दग्ध करता है, इसीलिए उसे भावाग्नि कहा जाता है । भावाचार्य - देखो आचार्य । आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणातो वा । जे ते भावायरिया भावयारोवउत्ता य ॥ (श्राव. नि. ९६५ ) । ज्ञान दर्शनादिरूप प्रचार पांच प्रकार का है। जो भावाचार में उपयुक्त होकर स्वयं उस श्राचार का परिपालन करते हैं तथा अन्य साधुनों के लिए उसका व्याख्यान करते हैं उन्हें भावाचार्य कहा जाता है
८५७, जेन - लक्षणावली
भावाजीव- १. भावाजीवो धर्मादिर्गत्याद्युपग्रहकारीति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-५, पृ. ४६ ) 1 २. भावतस्त्वेकरस एकवर्ण एकगन्धो द्विस्पर्श इति । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३१) ।
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[भावाभिग्रह
१ गति स्थिति श्रादि के उपकारक धर्म-अधर्म आदि द्रव्य भाव की अपेक्षा श्रजीव माने जाते हैं । २ भाव की अपेक्षा अजीव (परमाणु) वह है जो एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्शो ( स्निग्ध-रुक्ष और शीत-उष्ण में से एक-एक ) से सहित हो ।
भावाधः कर्म – संजमठाणाणं कंडगाण लेसा - ठिईविसेसाणं । भावं हे करेई तम्हा तं भावहेकम्मं ॥ (fquefa. &ε) I
जो प्राचरण संयमस्थानों के काण्डकों, लेश्याविशेषों और कर्म प्रकृतियों के स्थितिविशेषों सम्बन्धी विशुद्ध व विशुद्धतर स्थानों में वर्तमान भाव ( श्रध्यवसाय) को श्रधः करता है - हीन व हीनतर स्थानों में करता है—उसे भावाधः कर्म कहा जाता है । यह साधु के श्राहारविषयक १६ उद्गमदोषों में प्रथम है ।
भावानुयोग - भावानामनुयोगो नाम बहूनामौदयिकादीनां भावानां व्याख्यानम् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३२) । श्रदयिक श्रादि भावों में किसी एक के अथवा बहुतों के व्याख्यान को भावानुयोग कहते हैं । भावापरिणत - दायकादेरशुद्ध भावे भावापरिणतम् । (गु. गु. षट्ट २५, पृ. ५८ ) । दाता आदि के भाव के अशुद्ध होने पर भावापरिणत नाम का एषणादोष ( ८वां ) होता है । भावाभिग्रह - उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गा होति । गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा ॥ श्रसक्कण अहिसवकण परम्मुहाङलं किएयरो वा वि । भावन्नयरेण जुम्रो, ग्रह भावाभिग्गहो नाम ।। (बृहत्क. भा. १६५२-५३ ) । उत्क्षिप्त -- दाता के द्वारा पाकपात्र से पूर्व में ही निकाल कर रखे हुए - भोज्य पदार्थ का अन्वेषण करने वाले भावयुक्त श्रभिग्रह ( भावाभिग्रह ) होते हैं, अर्थात् "मैं पाकपात्र से पूर्व में निकाली गई वस्तु को ही ग्रहण करूंगा, इस प्रकार के नियम का नाम भावाभिग्रह है । अथवा गाता हुआ, रोता हुया या बैठा हुधा श्रादि दाता यदि देगा तो ग्रहण करूंगा, ऐसा जो नियम किया जाता है उसे भावाभिग्रह कहते हैं । तथा हटता हुआ, सन्मुख श्राता
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