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भावबेद] ८५२, जैन-लक्षणावली
(भावशुद्धि भी प्रासक्ति न रखना, इसे भावविशुद्धि जानना १ ऊपर अथवा नीचे जाने के लिए चढ़ने उतरने चाहिए।
का कारणभूत जो लकड़ी आदि का मार्ग (नसैनी भाववेद-xxx परिसेसादो मोहणीयदव्व- प्रादि) होता है उसका नाम सिति या शीति है। कम्मक्खंघो तज्जणिदजीवपरिणामो वा [दव्व-भाव] भावशीति प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो वेदो। (धव. पु. ५, पृ. २२२)।
प्रकार की है। जिन कारणों से संयमस्थानों, मोहनीयकर्मरूप पुदगलस्कन्ध को द्रव्यवेद और संयमकण्डकों और लेश्यापरिणाम विशेषों में नीचे के उसके प्राश्रय से होने वाले जीव के परिणाम को संयमस्थानों में भी जाया जाता है वह अप्रशस्त भाववेद कहा जाता है।
भाबशीति कहलाती है, तथा जिन कारणों से उक्त भावव्यतिरेक-भवति गुणांशः कश्चित् स भवति संयमादिस्थानों के ऊपर ऊपर के विशेषों में क्रम से नान्यो भवति स चाप्यन्यः । मोऽपि न भवति तदन्यो केवलज्ञान तक अध्यारूढ़ होता है, उसे प्रशस्त भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक: ।। (पंचाध्या. भावशीति कहा जाता है। १-१५०)।
भावशुद्ध दान-भावशुद्ध त्वनाशंसं श्रद्धया यत्प्रविवक्षित जो कोई गुणांश है वह वही है, अन्य नहीं दीयते । (त्रि. श. पु. च. १, १, १८४)। हो सकता; तथा जो अन्य गुणांश है वह वह जो दान विना किसी प्रकार की अपेक्षा के श्रद्धा (पूर्वोक्त) नहीं हो सकता, अन्य ही रहनेवाला है। पूर्वक दिया जाता है उसे भावशुद्ध दान समझना यही भावयतिरेक है।
चाहिए। भावव्युत्सर्ग - भावव्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्यागः, भावशुद्धि----१. मद-माण-माय-लोहविवज्जियभावो अथवा धर्म-शुक्लध्यायिनः कायोत्सर्गः। (प्राव. नि. दु भावसुद्धिति । परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पमलय. वृ. १०६३, पृ. ५८५)।
दरिसीहि ॥ (नि. सा. ११२)। २. एमेव भावमज्ञानादि के परित्याग को भावव्युत्सर्ग कहते हैं; सुद्धी तब्भावाएसो पहाणे य । तब्भावगमाएसो अथवा धर्म और शुक्ल ध्यान के चिन्तन करने अणण्ण-सीसा हवइ सुद्धी ।। दसण-णाण-चरिते तवोवाले के कायोत्सर्ग को भावव्यत्सर्ग जानना चाहिए। विसुद्धी पहाणमाएसो। जम्हा उ विरुद्धमलो तेण भावशस्त्र-१. xxx भावे य असंजमो विसद्धो हवइ सदो॥ (दशव. नि. २८६-८७)। सत्थं ॥ (प्राचारा. नि. १५०) । २. भावशस्त्र ३. भावसोधी तव-संजमादीहि अट्ठविहकम्ममललित्तो पुनरसंयमः दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षण: । जीवो सोधिज्जति । (उत्तरा. चू. पृ. २११) । (प्राचारा. नि. शी. वृ. १५०, पृ. ५५)। ४. भावशुद्भिः कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्या२ मन, बचन एवं काय के दुष्प्रणिधान (दूषित हितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता। तस्यां सत्यामाप्रवृत्ति) रूप असंयम को भावशस्त्र कहा जाता है। चारः प्रकागते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् । (त. भावशीति-१. संजमठाणेणं कंडगाणालसाविती वा. ६,६, १६ त. श्लो. ६-६, चा. सा.प. विसेसाणं । उवरिल्लपयकमलं भावसिती केवलं ३२)। ५. अवगयराग-दोसाहंकारट्र-रुज्झाणस्स जाव ॥ (व्यव. भा. १०-४०६)। २. सितिनाम पंचमहव्वय कलिदस्स लिगुत्तिगुत्तस्स गाण-दसणऊर्ध्वमधो वा सुखोत्तरोवतारहेतुः काष्ठादिमयः चरणादिचारणवढिदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि। पन्थाः।xxx भावशीतिरपि द्विधा प्रशस्ता- (धव. पु. ६, पु. २५४) । ६. यशःपुजापुरस्कारप्रशस्ता च। तत्र यहेतु भिस्तेषामेव संयमस्थानानां निःकांक्षा निर्मदा मतिः । श्रुतामृतकृतानन्दा भाव. संयमकण्डकानां लेश्यापरिणामविशेषाणां बा अघ- शुद्धिर्मनेर्मता॥(प्राचा. सा. ४-८४)। स्तात् संयमस्थानेष्वपि गुच्छति सा अप्रशस्ता भाव- १मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव को शौतिः, यैः पुनर्हेतुभिस्तेषामेव संयमादिस्थानानामुप... भावशुद्धि कहते हैं। २ भावशुद्धि तीन प्रकार की है-- रितनेषुपरितनेषु विशेषेष्वध्यारोहति सः प्रशस्तोच्चो- तद्भावशुद्धि, आदेशभावशुद्धि और प्राधान्यभावशुद्धि। परितन एव क्रमेण भावशीतिस्तावद् द्रष्टव्यं यावत् अन्य भाव से प्र
अन्य भाव से प्रसंयुक्त रहकर जो भाव शुद्ध होता है केवलज्ञानम् । (व्यव. भा. मलय. ३. १०-४०६) से उसका नाप तदभावशुद्धि है, जैसे-~-भूखे आदि की
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