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भावपाप ]
होता है । भावपाप - १. जीवस्य कर्तृनिश्चय कर्मतामापन्नोऽशु भपरिणामो द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूत त्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापम् । (पंचा. अमृत. बृ. १३२ ) । २. मिथ्यात्व - रागादिरूपो जीवस्याशुभपरिणामो भावपापम् । (पंचा. का. जय. वू. १०८; अन. घ. स्व. टी. २-४० ) ।
१ जीव के जो प्रशुभ परिणाम होता है उसका कर्ता जीव है व वह परिणाम कर्म है, वह अशुभ परिणाम द्रव्यपाप का निमित्त मात्र होने से कारणीभूत है, इसी से प्रात्रवक्षण के बाद उसे भावपाप कहा जाता है ।
८४७, जैन - लक्षणावली
भावपुण्य - १. जीवस्य कर्तुः निश्चयकतापन्नः शुभ परिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भवति भावपुण्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२; अन. ध. स्वो टी. २ - ४० ) । २. दान-पूजा - षडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरि णामो भावपुण्यम् । (पंचा. जय. वृ. १०८ ) |
१ शुभ परिणाम का कर्ता जीव है व वह शुभ परिणाम कर्म है, यह शुभ परिणाम द्रव्य पुण्य का निमित्त है; इसी से उसे प्रात्रवक्षण के बाद भावपुण्य कहा जाता है ।
भावपुरुष - १. भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥ (श्राव. नि. ७३६) । २. पुंवेदोदयेन स्त्रियाम् अभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुष: । (गो. जी. जी. प्र. २७१) ।
१ 'पूः शरीरम्, पुरि शेते इति पुरुष:' इस निरुक्ति के अनुसार जो शरीर में रहता है उसे पुरुष या जीव कहा जाता है, वही भावपुरुष है । अथवा भावद्वार की प्ररूपणा में या भावनिर्गमप्ररूपणा के अधिकार में भावपुरुष- शुद्ध जीव तीर्थंकर या गणघर प्रकृत हैं ।
भावपुलाक - भावपुलाए जेण मूलगुण- उत्तरगुणपण पडिसेविएण निस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाश्रो । ( दशवं. चू. पू. ३४६ ) ।
जिस मूल गुण व उत्तरगुण पद के सेवन द्वारा संयम निस्सार होता है उसे भावपुलाक कहते हैं । भावपूजा - १. अभ्युत्थान- प्रदक्षिणीकरण- प्रणमनादिका कायक्रिया च, वाचा गुणसंस्तवनं च भावपूजा, मनसा तद्गुणानुस्मरणम् (भ. प्रा. विजयो ४७ ) ।
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[भावप्रकाशदीप
२. काऊणातच उट्टयाइगुणकित्तणं जिणाईणं । जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं खु ॥ पंचणमोवकारपएहिं ग्रहवा जावं कुणिज्ज सत्तीइ । श्रहवा जिणिदथोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि ।। पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं ग्रहवा । जं भाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिद्दिट्ठ ।। (वसु. श्री. ४५६-५८ ) । ३. भावपूजा कायेनाभ्युत्थान- प्रदक्षिणीकरण-प्रणामादिका, वाचा गुणस्तवनम्, मनसा गुणानुस्मरणम् । (अन. घ. स्वो टी. २- ११०; भ. प्रा. मूला. ४७) ४. यदनन्त चतुष्काद्यैविधाय गुणकीर्तनम् । त्रिकालं क्रियते देवबन्दना भावपूजनम् ।। परमेष्ठिपदैर्जापः क्रियते यत्स्वशक्तितः । श्रथवाऽर्हद्गुणस्तोत्रं साप्यच भावपूर्विका ॥ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । ध्यायते यत्र तद्विद्धि भावार्चन नमनुत्तरम् ॥ ( धर्मसं. श्री. ६, ६८- १०० ) ५. भावपूजा स्तुतिभिः सद्भूततीर्थ कृद्गुणपरावर्तनपराभिर्वाग्भिः । ( चैत्यव. सोम. अव. १०, पृ. ५) १ उठना, प्रदक्षिणा करना और प्रणाम आदि करना; इस प्रकार की कार्यक्रिया के साथ वचन से स्तुति करना तथा मन से उनके गुणों का स्मरण करना; इस सबको भावपूजा कहते हैं । भावपूति - उग्गमको डिप्रवयवमितेण वि मीसियाँ सुसुद्धपि । सुद्धपि कुणइ चरणं पूइं तं भावओ पूई ( पिण्डनि. २४७ ) ।
जो भोजन श्रादि उद्गमदोषसमूह के विभागत श्राषाकर्मादि के श्रवयव ( अंश ) मात्र से भी मिश्रित हो वह स्वरूपतः उद्गमादिदोषों से रहित होकर भी निरतिचार चारित्र को चूंकि मलिन करता है, इसी से उसे भावपूति कहा जाता है । भावपृथिवी जीव - XXX भावेण य होइ पुढवी जीवो उ। जो पुढविनामगोयकम्मं वेएइ सो जीवो ॥ ( श्राचा. नि. ७०, पृ. २६ ) । जो जीव पृथिवी नामगोत्र कर्म का वेदन करता है - जिसके स्थावर नामकर्म से भेदभूत पृथिवी नामकर्म का उदय रहता है- वह भाव से पृथिवी जीव कहलाता है । भावप्रकाशदीप - तथा यथैव तमसाऽन्धी कृतानामपि प्रकाशदीपः तत्प्रकाश्यं वस्तु प्रकाशयति एवमज्ञान मोहितानां ज्ञानमपीति भावप्रकाशदीप उच्यते । (उत्तरा. नि. शा. वृ. २०७ )
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