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बहुबीजक] ८११, जन-लक्षणावली
[बहुबिधज्ञान लिंग बिल्ले या। मामलग फणिस दालिम आसोठे इसका नाम बहुमान है। यह पाठ प्रकार के ज्ञानाउंवर बडे य॥ णग्गोह णंदिरुक्खे पिप्परी सयरी चार में चौथा है। २ गुरु आदि के प्रति हृदय से पिलुक्खरुक्खे य । काउंवरि कुत्थंभरि बोद्धव्वा देव- अतिशय प्रादर का भाव रखना, इसे बहुमान नामक दाली य॥ तिलए लउए छत्तोह सिरीस सत्तवन्न ज्ञानाचार कहा जाता है। ३ गरुविनय, स्वाध्याय, दहिवन्ने। लोद्धद्धव चंदणज्जुण णीमे कुडए कयंबे ध्यानाभ्यास, परार्थकरण और इतिकर्तव्यता; इस या ॥ जे यावन्ने तहप्पगारा एतेसि णं मूलावि प्रकार की साधुजन की प्रवृत्ति हुमा करती है। असंखेज्जजीविया कंदावि खंधावि सालावि पत्ता इनमें गुरुविनय के अन्तर्गत बहुमान है। निर्मल पत्तेयजीविया पुप्फा अणेगजीविया फला बहुबीयगा अन्तःकरण से गुरु के प्रति अनुराग का भाव रखना, से तं बहुबीयगा, सेत्तं रुक्खा । (प्रज्ञाप. सू. २३, गा. इसे बहुमान कहते हैं। ससंग प्रतिपत्तिरूप१५-१७)।
प्रासक्तिस्वरूप-जो मोह होता है वह बहुमान का अस्थिक, तिन्दुक, कपित्थ, अम्बाडक, मातुलिंग, लक्षण नहीं है, क्वोंकि उसका शास्त्र में निषेध बेल, प्रांवला, कटहल, अनार, अश्वत्थ (पीपल), किया गया है। ऊमर, वट, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पिप्पली, शतरी, बहुविधज्ञान-१. प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपप्लक्ष, कादुम्बरि, कुस्तुम्भरि, देवदालि, तिलक, शमादिसन्निधाने सति, ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकलवक, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, मेक-द्वि-त्रि - चतुःसंख्येयासंख्येयानन्तगुणस्यावग्राहकधव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदम्बक ये त्वात् बहुविधमवगृह्णाति । (त. वा. १, १६, तथा इसी प्रकार के अन्य वृक्ष भी जो फलान्तर्गत १६)। २. बहुपयाराणं हय-हत्थि-गो-महिसादीणं बहत बीजों वाले हैं, वे बहबीजक कहलाते हैं। प्रा. गद्रणं बहविहावग्गहो। (धव. प. ६, प. मलयगिरि के अनुसार इस देश में प्रसिद्ध अमलक बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । जातिगतभूयःसंख्याविष(प्रांवला) प्रादि बहबीजक नहीं हैं, अतः देशान्त- यः प्रत्ययो बहविधः । (धव. पु. ६, पृ. १५१); र्गत प्रांवला प्रादि को बहुबीजक समझना चाहिए, प्रकारार्थे विधशब्दः, बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । एतद्देशीय वे एकास्थिक हैं न कि बहुबीजक। , जातिगतभूयःसंख्याविशिष्टवस्तुप्रत्ययो बहुविधः । बहुब्रीहि-अन्यपदार्थप्रधानो बहुब्रीहिः । (अनुयो. (धव. पु. १३, पृ. २३७) । ३. बहुविधस्य श्यादिहरि. व. पृ. ७३)।
प्रकारस्य विपुलप्रकारस्य वावग्रहः। (त. इलो. १, जिस. समास में अन्य पदार्थ प्रधान हो उसे बहुब्रीहि १६, पृ. २२४) । ४. बहुविधं भिन्नजातीयानां ग्रहकहते हैं।
णम् । (सिद्धिवि. वृ. १-२७, पृ. ११६) । ५. बहुबहुमान-१. सुत्तत्थं जप्पंतो वायंतो चावि णिज्ज- वत्ति-जादिगहणे बहुविहं xxx। (गो. जी. जी. राहेदुं । प्रासादणं ण कुज्जा तेण किदं होदि बहु- ३११) । ६. बहुप्रकाराणां हस्त्यश्व-गो-महिष्यादीनां माणं ॥ (मूला. ५-८६) । २. बहुमानो नामा- नानाजातीयानां ग्रहणं बहुविधावग्रहः । (मूला. व. ऽऽन्तरो भावप्रतिबन्धः । (दशवं. नि. हरि. वृ. १८३, १२-१८७)। ७. बह्वेकजातिविज्ञानं स्याद् बढेकव्यव. भा. मलय. वृ. १-१६२, पृ. २५) । ३. बहु- विधं यथा । वर्णा नृणां बहुविधा गौर्जात्येकविधेति मानः प्रान्तरः प्रीतिविशेषो भावप्रतिबन्धः सदन्तः- च ॥ (प्राचा. सा. ४-१८)। ८. बहुजातीनां ग्रहणे करणलक्षणो न मोहः, मोहो हि ससङ्गप्रतिपत्तिरूपः मतिज्ञाने तद्विषयो बहुविध इत्युच्यते, यथा गोशास्त्रे निवार्यते, गुरुषु गौतमस्नेहन्यायेन तस्य मोक्षं महिषाश्वादयो बहुजातयः । (गो. जी. जी. प्र. प्रत्यनुपकारकत्वात्, मोक्षानुकूलस्य तु प्रतिबन्धस्या- ३११)। निषेधात्, ततः सकलकल्याणसिद्धेः । (षोडश. वृ. १ श्रोत्रेन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट १३-२)। ४. बहुमानं पूजा-सत्कारादिकेन पाठा- क्षयोपशम के साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय का दिकं बहमानाचारः । (मला. वृ. ५-७२)। सहकार होने पर तत-विततादि शब्दों का एक-दो. १निर्जरा के कारणभत सूत्रार्थ का उच्चारण व तीन प्रादि संख्यात. असंख्यात व अनन्तगा वाचन करते हुए गुरु प्रादि का अनादर न करना, से संयुक्त ग्रहण करना; इसका नाम बहुविध अवग्रह
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