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बहिरात्मा]
बहिरात्मा - १. अंतर- बाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरा । (नि. सा. १५० ) । २. देह कलत्तं पुत्तं मित्ताइ विहाव चेदणारूवं । अप्पसरूवं भावइ सो व हवेइ बहिरप्पा | इंदियविसयसुहाइसु मूढमई रमइ ण लहइ तच्चं । बहुदुक्खमिदि ण चितइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥ जं जं श्रक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करेइ बहुदुक्खं । अप्पाणमिदि ण चितइ सो चैव हवेइ बहिरप्पा || ( रयणसार १३७-३६) । ३. बहिरात्मा शरीरादी जातात्मभ्रान्तिः ×× X | ( समाधि . ५ ) । ४. देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ || ( परमा. १ - १३ ) । ५. मिच्छा दंसणमोहिय पर अप्पा ण मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुण संसार भमेइ || ( योगसार ७)। ६. मिच्छत्तपरिणदप्ण तिव्वकसाएण सुट्ठ ग्राविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा || (कार्तिके. १९३ ) । ७. आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोह निद्रास्त चेतनः ।। (ज्ञाना. ३२-६, पृ. ३१७) । ८. बहिरात्मा - ऽऽत्मविश्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः । ( श्रमित. श्रा. १५-५८ ) । ९. स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुख प्रतिपक्षभूतेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा । (बृ. द्रव्यसं. टी. १४) । १०. मय- मोह - माणस हिश्रो रायहोसेहि णिच्चसंतत्तो । विसयेसु तहा गिद्धो बहिरप्पा भण्णए एसो ।। (ज्ञा. सा. ३०) । ११. आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । ( योगशा. १२ - ७ ) । १२. हेयोपादेयवैकल्यान्न च त्यहितं हितम् । निमग्नो विषयाक्षेषु बहिरात्मा विमूढधीः ॥ ( भावसं वाम. ३५३ ) । १३. बहिद्रव्यविषये शरीर - पुत्र - कलत्रादिचेतनाचेतनरूपे प्रात्मा येषां ते बहिरात्मानः । ( कार्तिके. टी. १६२ ) । १४. विषय कषायावेशः तस्वाश्रद्धा गुणेषु च दोषः । श्रात्माज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥ (अध्यात्मसार २० - २२ ) । १५. यस्य देह - मनोवचनादिषु श्रात्मत्वभास देह एवात्मा एवं सर्वपौद्गलिकप्रवर्तनेषु आत्मनिष्ठेषु आत्मत्वबुद्धिः स बाह्यात्मा । ( ज्ञा. सा. वू. १५ - २, पृ. ५३ ) । १ जो स्वाध्याय, प्रत्याख्यान एवं स्तवनादिविषयक बाह्य जल्प (कथन) तथा अनशनादिविषयक सत्कारादि का इच्छुक होकर अभ्यन्तर जल्प में मन
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[बहिःशम्बूक
को लगाता है उसे बहिरात्मा कहते हैं । २ जो शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्रादि एवं विभावचेतनारूपराग-द्वेषादिरूप विभावपरिणति को प्रात्मस्वरूप मानता है; इन्द्रियविषयजनित सुखादिक में मूढ़बुद्धि होकर रमता है व वस्तुस्वरूप को नहीं प्राप्त करता हुआ 'यह सब प्रतिशय कष्टदायक है' ऐसा विचार नहीं करता है; तथा जो कुछ भी इन्द्रियों का सुख है, वह आत्मा को बहुत दुख देने वाला है; यह भी विचार नहीं करता है उसे बहिरात्मा जानना चाहिए । १४ विषय कषायों में संलग्न रहना, जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान न करना, गुणों में द्वेष करना और ग्रात्मस्वरूप को न जानना; ये बहिरात्मा के लक्षण हैं । बहिर्मल - एकत्र बहिर्मलः शरीरेन्द्रियादिकम्, अन्यत्र बहिर्मलः किट्टमादिकम् । (श्र. मी. वसु. बु. ४) ।
एक स्थान में - श्रात्मा के विषय में- शरीर व इन्द्रियों श्रादि को बाह्य मल कहा जाता है, तथा अन्यत्र - श्रात्मभिन्न सुवर्णादि में कोट आदि को बाह्य मल कहा जाता है ।
८०६, जैन - लक्षणावली
बहिर्योग - बाह्य क्रिया बहिर्योग: XXX I ( ब्रष्यान. त . १ - ५, पृ. ६ ) । बाहिरी क्रिया को बहियोंग कहते हैं । बहिर्व्याप्ति- दृष्टान्ते व्याप्तिः बहिर्व्याप्तिः X XX। ( सिद्धिवि. वृ. ५-१५, पृ. ३४६ पं. ३-४ ) ; पक्षादन्यत्र व्याप्तिः बहिर्व्याप्तिः । (सिद्धिवि. वृ. ६-५, पृ. ३८२ ) ।
पक्ष को छोड़कर अन्यत्र ( दृष्टान्त में ) साध्यसाधन के अविनाभाव के दिखलाने को बहिर्व्याप्ति कहते हैं ।
बहिः पुद् गलक्षेप --- देखो पुद्गलक्षेप | बहिःपुद्गलक्षेपोऽभिगृहीत देशाद् बहिः प्रयोजनभावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्वादिक्षेप: पुद्गलप्रक्षेप इति । (श्रा. प्र. टी. ३२० ) ।
मर्यादित देश के बाहिर प्रयोजन के उपस्थित होने पर दूसरों को संबोधित करने के लिए कंकड़ आदि के फेंकने पर देशावकाशिक व्रत का बहिःपुद्गलक्षेप नामक एक अतिचार होता है।
बहिः शम्बूका--यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात् तथैव
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