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भव्यशरीरद्रव्योपक्रम ]
दधति अत्तणं त्ति आत्मीयेन जिनदृष्टेन भावेनेत्यादि पूर्ववत्, अथवा तदावरणक्षयोपशमलक्षणेन सेयकाले ति छान्दसत्वादागामिनि काले शिक्षिव्यते न तावच्छिक्षते, तदेतद् भाविनीं वृत्तिमङ्गीकृत्य भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमित्युच्यते । ( श्रनुयो. हरि वृ. पू. १५) ।
१ जो जीव योनिजन्म से निकलने पर - गर्भ से बाहिर आने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव से श्रावश्यक इस पद को सीखेगा भविष्य में उसका ज्ञान प्राप्त करेगा, किन्तु वर्तमान में नहीं सीखता है; वह भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यावश्यक कहलाता है ।
भव्यशरीरद्रव्योपक्रम - यस्तु बालको नेदानीमुपक्रमशब्दार्थमवबुध्यते, अथ चाऽवश्यमायत्यां भोत्स्यते, संभावनाभाविनिबन्धनत्वाद् भव्यशरीरद्रव्यो'पक्रमः । | ( व्यव. भा. १, पू. १ जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ५) ।
जो बालक उपक्रम शब्दार्थ को अभी तो नहीं जान रहा है, किन्तु भविष्य में वह उसे श्रवश्य जानेगा; इस प्रकार भविष्य में सम्भावना का कारण होने 'से उसे भव्यशरीरद्रव्योपक्रम कहा जाता है । भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यश्रुत-से किं तं भविअशरीरदव्वसु ? जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खते जहा दव्वावस्सए तहा भाणिश्रव्वं जाव से तं भवि
सरीरदव्वसु । ( श्रनुयो. सू. ३६, पृ. ३३) । जो जीव योनिजन्म से निकलने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार श्रुत पदार्थ को नहीं जानता है, पर भविष्य में उसे जानेगा; उसे भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यश्रुत कहा जाता है ।
८४०, जैन-लक्षणावली
भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यानुपूर्वी- -- से किं तं भवियसरी रदव्वाणुपुव्वी ? जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खते सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं भविश्र सरीरदव्वाणुपुव्वी । (अनुयो. सू. ७२, पृ. ५२ ) । जो जीब योनिजन्म से निकलने पर प्राप्त शरीर के श्राश्रय से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार श्रनुपूर्वी पद को वर्तमान में तो नहीं जानता है, किन्तु भविष्य में उसे अवश्य जानेगा, उसे भव्यशरीरनोश्रागमद्रव्यानुपूर्वी कहते हैं ।
भव्य सिद्ध - १. भव्याः भविष्यन्तीति सिद्धिर्येषां
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[भाटकजीविका
ते भव्यसिद्धयः । ( धव. पु. १, पृ. ३६२ ) ; भविया सिद्धी जेसि जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । (धव. पु. १, पृ. ३६४ उद्) । २. भव्या भवितुं योग्या भाविनी या सिद्धि: अनन्तचतुष्टय स्वरूपोपलब्धिर्येषां ते भव्यसिद्धाः । (गो. जी. जी. प्र. ५५७ ) । १ जिनको भविष्य में सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होने वाली है वे भव्यसिद्ध कहलाते हैं । भव्यस्पर्श-जहा विस-कूड-जंत-पंजर-कंदय-वग्गुराणिकत्ता समोद्दियारो य भवियो फुसणदाए णय पुण तावतं फुसदि सो सव्वो भवियफासो णाम । ( षट्खं. ५, ३, ३०, पु. १३, पृ. ३४) । विष, कूट, यन्त्र, पंजर, कन्दक और वागुरा आदि; उनके कर्ता (निर्माता) तथा उन्हें इच्छित प्रदेश में रखने वाले; जो स्पर्श के योग्य हैं पर वर्तमान में स्पर्श नहीं करते हैं, उन सबको कारण में कार्य के उपचार से भव्यस्पर्श कहा जाता है । भाक्तिक- यो धर्मधारिणां धत्ते स्वयं सेवापरायणः । निरालस्योऽशठः शान्तो भाक्तिकः समतो बुधैः ॥ ( श्रमित. श्री. ६-४ ) ।
जो धर्म के धारक महापुरुषों को सेवा में स्वयं तत्पर होकर उन्हें धारण करता है तथा आलस्य से रहित होकर सरल व शान्त होता है वह भाक्तिक माना गया है ।
भाजन सम्पात श्रन्तराय - १. x x x संपादो भायणाणं च ।। (मूला. ६-७८ ) । २. तथा सम्पातो भाजनस्य परिवेषिक हस्ताद् भाजनं यदि पतेत् । (मूला. वृ. ६-७८ ) ।
१ परोसने वाले के हाथ से पात्र के गिर जाने पर साधु के भोजन में भाजनसम्पात नाम का प्रन्तराय होता है ।
भाटकजीविका १. भाडीकम्मं सएण भंडोववखरेण भाइएण वहइ, परायगं ण कप्पति अण्णेसि वा सगडं बलद्दे य न देति । (श्राव. ६, पृ. ८२६; श्रा. प्र. टी. २८८ ) । २. शकटोक्ष- लुलायोष्ट्र-खराश्वतर- वाजिनाम् । भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद्भाटकजीविका ॥ (योगशा. ३-१०५; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३३९ ) । ३. भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । (सा. ध. स्वो टी. ५, २१) ।
२ गाड़ी, बैल, भैसा, ऊंट, गधा, खच्चर और घोड़ा;
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