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प्राकमार्ग ]
से युक्त हो जाता है । तिलों का प्रथवा चावलों का प्रासुक पानी पीने के योग्य नहीं माना गया है, क्योंकि उससे मुख की शुद्धि नहीं होती । पत्थरों से विदीर्ण अथवा प्ररहट से ताडित जल तथा वापि - कानों का तपाहुना जल प्रासुक माना जाता है । प्राकमार्ग - सड जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया । बहुसो जेण गच्छति सो मग्गो फासुग्रो भवे ।। हत्थी अस्सो खरोढो वा गो-माहिस - गवेलया । बहुसो जेण गच्छति सो मग्गो फासुग्रो भवे ।। इत्थी पुंसा व गच्छति श्रादवेण य जं हृदं । सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुग्रो हवे || ( मूला. ५, १०७-९) ।
शकट ( बैलगाड़ी), यान—मत्तवारणयुक्त पल्यंकजात जो हाथी, घोड़ा एवं मनुष्यादिकों के द्वारा खींचा जाता है; युग्य (पालकी) और रथ इत्यादि बहुत प्रकार के वाहन जिस मार्ग से जाते हैं वह प्रासुक माना जाता । हाथी, घोढ़ा, गधा, ऊंट, गाय, भैंस और गवेलक ( भेड़-बकरी) ये पशु जिस मार्ग से बहुतायत से निकल जाते हैं वह मार्ग प्रासुक होता है । जिस मार्ग से पुरुष व स्त्रियों का श्रावागमन चालू हो चुका है तथा जो सूर्य के ताप श्रादि से सन्तप्त हो चुका है, जो शस्त्रपरिणत हैं-जहां खेती की गई है— उसे प्रासुकमार्ग जानना चाहिए ।
प्रिय-स्वरुचि विषयीकृतं वस्तु प्रियम्, यथा पुत्रादि: । ( जयध. १, पृ. २७१ ) । अपनी रुचि के विषयभूत पुत्रादि पदार्थों को प्रिय समझा जाता है ।
७६८, जैन - लक्षणावली
प्रिय वचन - तत्र प्रियं यत् श्रुतमात्रं प्रीणयति । (योगशा. स्वो विव. १ - २१ ) । जिस वचन के सुनने मात्र से प्रसन्नता होती है वह प्रिय माना जाता है, यह सत्य वचन की एक विशेबता | अप्रिय वचन यथार्थ होते हुए भी सत्य में नहीं गिना जाता ।
प्रीतिदान - यत्पुनः स्वनगरे भगवदागमननिवेदकाय नियुक्तायानियुक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिरूढमानसैर्दीयते तत्प्रीतिदानम् । (बृहत्क. क्षे. वृ. १२०७ उत्थानिका) ।
अपने नगर में भगवान् के तीर्थंकर या केवली के -- श्रागमनविषयक समाचार देने वाले नियुक्त या
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[प्रेक्ष्य सयम
नियुक्त पुरुष के लिए जो हर्षपूर्वक दान दिया जाता है उसे प्रीतिदान कहते हैं । प्रीति-भक्तिगत कृत्य - प्रत्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोर्ज्ञातं स्यात् प्रीति-भक्तिगतम् ।। ( षोडशक. १०-५; ज्ञा. सा. टी. २७-७ उद्) ।
अत्यन्त प्यारी पत्नी के प्रति किये जाने वाले कार्य को प्रीतिगतकृत्य कहते हैं तथा प्यारी और हितंषिणी जननी के प्रति किये जाने वाले कार्य को भक्तकृत्य कहते हैं ।
प्रीत्यनुष्ठान -- १. यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कतुः । शेषत्यागेन करोति यच्च तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ॥ ( षोडशक. १० - ३ ) । २. यत्रादरोऽस्ति परमः, प्रीतिः स्वहितोदयात् भवेत्कर्तुः । शेषत्यागेन करोति यत्तु तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।। (ज्ञा. सा. वृ. ७-७ उद्) ।
१ जिस अनुष्ठान में कर्ता का अतिशय आदर-अधिक प्रयत्न - श्रौर हितोत्पादक होने से उसका प्रेम भी रहता है, तथा जिसे वह अन्य कार्य को छोड़कर करता है, उसे प्रीति श्रनुष्ठान कहते हैं । प्रेक्षा- असंयम- प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा ( प्रेक्षासंयमः ), स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षण
प्रत्युपेक्षणं वा । ( समवा. अभय वू. १७ ) । देखने में जो संयम होता है वह प्रेक्षा असंयम कहलाता है और वह स्थान एवं उपकरण श्रादि के न देखने पर अथवा श्रागमोक्त विधि के विना देखने पर होता है । प्रेक्षासंयम - देखो प्रेक्ष्यसंयम | प्रेक्ष्यसंयम - १. प्रेक्ष्यसंयम इत्यत्र क्रियाध्याहारःप्रेक्ष्य क्रियामाचरन् संयमेन युज्यते । प्रेक्ष्येति चक्षुषा दृष्ट्वा स्थण्डिलं बीज - जन्तु - हरितादिरहितं पश्चादूर्ध्व निषद्या त्वग्वर्तन स्थानानि विदधीतेत्येवमाचरतः संयमो भवति । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६-६, पृ. १८) । २. तथा प्रेक्ष्य चक्षुषा दृष्टं वा स्थण्डिलं बीज-जन्तु हरितादिरहितम्, तत्र शयनासनादीनि कुर्वीतेति प्रेक्षासंयमः । (योगशा. स्वो विव. ४, ६३, पृ. ३१६) ।
१ देख करके श्रावश्यक कार्य का करने वाला संयम से युक्त होता है - प्रेक्ष्य प्रर्थात् बीज, जन्तु श्रौर हरितकाय आदि से रहित शुद्ध भूमि को प्रांख से
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