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बन्धक] ८०६, जैन-लक्षणावली
[बन्धननाम दाद्वा न कुर्याच्छावकोत्तमः ॥ (लाटीसं. अभय. वृ. ४, १, २५०); बन्धनं कर्मपुद्गलानां ५-२६४) । १२. (क्रुधः) बन्धो रज्ज्वादिना निय- जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनम् । xxx न्त्रणम् । (धर्मसं. मान. स्वो. वृ. १-४३, पृ. आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरणं १००)।
बन्धनम् । (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, २९६)। १ प्रभीष्ट स्थान में जाने से रोकने में जो कारण ३. बन्धनं नाम-ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां है उसे बन्ध कहते हैं, वह अहिंसाणुव्रत का एक यथोक्तप्रकारेण स्व-स्वाबाधाकालोत्तरकालं निषिक्ताअतिचार है। ४ रस्सी अथवा सांकल प्रादि के नां यद् भूयः कषायपरिणतिविशेषान्निकाचनम् । द्वारा गाय व भंस प्रादि को बांध कर जो नियं- (प्रज्ञाप. १४-१६०); तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धत्रित किया जाता है यह बन्ध नाम का एक अहि- नम्, यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां साणुव्रत का प्रतिचार है। ६ ऊंट और हाथी च परस्पर तैजसादिपुद्गला सह सम्बन्धजनकं प्रादि के पकड़ने के लिये खोदे गये गड्ढे के तद् बन्धनं नाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. मख को ढकने के लिये जो रस्सियों की गांठों ४७०)। ४. बध्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तद्बन्धनम् । से विशिष्ट वारी-गजबन्धनी-बनायी जाती है (कर्मप्र. मलय. व. बं. क. २, पृ. १६) । ५. बध्यते उसे बन्ध कहा जाता है। इस प्रकार के बन्ध, यन्त्र अष्टप्रकारं कर्म येन वीर्यविशेषेण तद् बन्धनम् । व पिंजरा आदि विषयक ज्ञान को मिथ्याज्ञान (पंचसं. मलय. व. १)। जानना चाहिए।
१रस्सी अथवा सांकल मादि के द्वारा परतंत्र बन्धक-बन्धस्स दव्व-भावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा। करना, इसका नाम बन्धन है। २ ज्ञानावरणादिरूप ते बंधया णाम । (धव. पु. १४, पृ. २) ।
से निषिक्त-निषेकरूपता को प्राप्त-उसी कर्मद्रव्य और भाव के भेद से दो भेदों में विभक्त बन्ध दलिक का जो कषायपरिणाम की विशेषता से फिर के जो कर्ता हैं उन्हें बन्धक कहा जाता है।
से भी निविडबन्ध होता है, उसका नाम बन्धन है। बन्धकाद्धा-१. करणाइए अपुवो जो बन्धो सो न बन्धनकरण-देखो बन्ध । बंधणकरणं ति बन्धनहोइ जा अन्नो। बंधगद्धा सा तुल्लिगा उ ठिइकंडग- क्रिया-पगति-ठिति-अणुभाग-पररसतया पुग्गलाण द्धाए ॥ (पंचसं. उप. क. १५); अपूर्वकरणस्यादौ परिणामक्रिया तब्भावेण तं बन्धनकरणं जोगकसाएयो बन्धः प्रारब्धः यावदन्यो न भवति, प्रारब्धं हिंसा बंधणक्रिया भवति । XXX तत्थ 'बंधणसमाप्ति न नयति यावता कालेन सा बन्धकाद्धो- करणं' ति कम्मपोग्गलाण जीवप्पतेसाण य परोप्परं च्यते, सा च तुल्या स्थितिघातकालेन। (पंचसं. उप. संबंधणं बंधणकरणं । (कर्मप्र. चू. १-२, पृ. १८) । क. स्वो. वृ. १५)। २. अपूर्वकरणस्यादी प्रथमसमये पुद्गलों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रवेशरूप यो बन्धः प्रारब्धः स बन्धकादा उच्यते। xxx से परिणमाने की जो क्रिया है, उसे बन्धनकरण इदमुक्तं भवति-स्थितिघात-स्थितिबन्धो युगपदा- कहते हैं। यह कर्मप्रकृतिग्रन्थगत पाठ करणों में रभ्येते, युगपदेव च निष्ठां यात इति । (पंचसं. प्रथम है। मलय.व. उप. क. १५)।
बन्धनगुण-पोग्गलाणं जेण गुणेण परोप्परं बंधो १ अपूर्वकरण के मादि में प्रथम समय में-जो होदि सो बंधणगुणो णाम । (धव. पु. १४, पृ. बन्ध प्रारम्भ किया गया है, जब तक अन्य बन्ध ४३५)। नहीं होता है-प्रारम्भ किया हुमा बन्ध समाप्त जिस गुण के द्वारा पुद्गलों का परस्पर में बन्ध नहीं होता है-उतने काल को बन्धकाद्धा कहा होता है वह बन्धनगुण कहलाता है । नाता है। वह स्थितिकाण्डककाल के समान है। बन्धननाम-१. शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां बन्धन-देखो बन्ध । १. बन्धनं संयमनं रज्जु- पुद्गलानामन्योऽन्यप्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद् निगडादिभिः । (ध्यानश. हरि. वृ. १६)। २. बन्ध- बन्धननाम । (स. सि. ८-११) । २. सत्यां प्राप्तौ नं तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि निर्मितानामपि शरीराणां बन्धक बन्धननाम, अन्यथा कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति । (स्थानां. वालुकापुरुषवदनद्धानि शरीराणि स्युः । (त. भा..
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