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प्रशस्तोपबृहण] ७८४, जेन-लक्षणावली
[प्रश्नकुशल का निग्रह करना; इसे प्रशस्त इन्द्रियप्रणिधि कहा लिए उसका प्रशान्तरस नाम सार्थक है । जाता हैं।
प्रश्न--- १. पण्हो उ होइ पसिणं जं पासइ वा सयं प्रशस्तोपबृहण -- पसत्था साहूसु नाण-दसण- तु तं पसिणं । अंगुठुच्चिट्ठ-पडे दप्पण-असि-तोयतव-संजम-खमण-वेयावच्चाइसु अब्भुज्जयस्स उच्छा- कुड्डाई ।। (बृहत्क. १३११) । २. प्रश्नः संशयापतौ हवड्ढणं उवव्हणं ।। (जीतक. चू. २८, पृ. १३)। असंशयार्थ विद्वत्सन्निधौ स्वविवक्षासूचकं वाक्यमिति। साधुनों में ज्ञान, दर्शन, तप, संयम, क्षमण (उप- (पाव. नि. हरि. व. ६१)। ३. नामनि निति वास) और वैयावृत्त्य प्रादि में उद्यत साधु के लक्षणनिर्णयार्थः प्रश्नो भवति, लक्षणे वा निर्माते उत्साह के बढ़ाने को प्रशस्त उपबृहण कहते हैं। नामनिर्ज्ञानार्थः इति । तत्र पूर्वस्मिन् 'किंलक्षणं प्रशंसा-१. गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा। (स. जीवादिद्रव्यम्' इति प्रश्नः, 'उपयोगादिलक्षणम्' सि. ६-२५; त. श्लो. ६-२५); मनसा मिथ्या- इति प्रतिवचनम् । अपरस्मिन् पक्षे 'उपयोगादिलक्षदृष्टेनि-चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा । (स. सि. ७, णः किन्नामा पदार्थः' इति प्रश्नः, 'जीवादिनामा' २३; त. वा. ७, २३, १; चा. सा. पृ. ४)। इत्युत्तरम् । (न्यायकु. ७-७६, पृ. ८०२) । ४. २. ज्ञान-दर्शन-गुणविशेषोद्धावनं भावतः प्रशंसा। अथिजनेन शुभाशुभ पृष्टो दैवज्ञः स्वप्नादिषु तत्परि(त. भा. ७-१८)। ३. गुणोद्धावनाभिप्रायः ज्ञानार्थं विद्यादिदेवतां यत्पृच्छति स प्रश्नः । (प्राव. प्रशंसा। सद्भूतस्याऽसद्भूतस्य वा गुणस्योद्भावनं हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८३)। ५. या विद्या प्रत्यभिप्रायः प्रशंसेत्युपदिश्यते । (त. वा. ६, २५, मन्त्रा वा विधिना जप्यमानः पृष्टा एव सन्तः शुभा
शुभं कथयन्ति ते प्रश्नाः । (नन्दी. मलय. वृ. १५४, १ गुणों के प्रगट करने के अभिप्राय का नाम प्रशंसा पृ. २३४)। ६. प्रश्नः किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो है। २ ज्ञान व दर्शनरूप विशेष गुणों को भावतः न वेति संघमुद्दिस्य पृच्छा । (अन. ध. स्वो. टी. प्रगट करना, यह प्रशंसा कहलाती है।
७-१८)। प्रशान्तरस-१. निहोसमणसमाहाणसंभवो जो १ देवता आदि से पूछने को प्रश्न कहा जाता है, पसंतभावेणं । अविकारलक्खणो सो रसं पसंतोत्ति अथवा स्वयं व वहां पर स्थित अन्य जन भी जो णायब्दो ॥ (अनुयो. गा. ८०, पृ. १३६) । देखते हैं उसे पसिण (प्राकृत शैली से) कहते हैं । २. हिंसानतादिदोषरहितस्य क्रोधादित्यागेन प्रशान्त- यथा----अंगठे-कंसार (क्षद्र कीड़ा) आदि से स्य इन्द्रियविषयविनिवृत्तस्य स्वस्थमनसः हास्यादि- भक्षित वस्त्र, दर्पण, तलवार, पानी और भित्ती विकारजित: अविकारलक्षण: प्रशान्तो रसो भवति। आदि में अवतीर्ण देवता प्रादि से जो पूछा जाता (अनयो. . पृ. ४६)। ३. निर्दोषमनःसमाधान- है उसे प्रश्न समझना चाहिये । २ किसी पदार्थ के सम्भवः, हिसादिदोषरहितस्य इन्द्रियविषयविनिवृत्त्या विषय में सन्देह के उत्पन्न होने पर उसे दूर करने स्वस्थमनसो यः प्रशान्तभावेन क्रोधादित्यागेन अवि- के लिए विद्वान् के समीप में अपनी विवक्षा के कारलक्षणः हास्यादिविकारजितः असौ रसः सूचक जिस वाक्य का उपयोग किया जाता है प्रशान्तो ज्ञातव्यः । (अनयो. हरि. व. प. ७१)। उसका नाम प्रश्न है। ६ इसके ऊपर हमें अनुग्रह ४. प्रशाम्यति क्रोधादिजनितौत्सुक्यरहितो भवत्यने- करना चाहिये या नहीं, इस प्रकार संघ को लक्ष्य नेति प्रशान्तः, परमगुरुवचःश्रवणादिहेतुसमल्लसितः करके जो पूछा जाता है उसे प्रश्न कहते हैं। यह उपशमप्रकर्षात्मा प्रशान्तो रसः । (अनुयो. गा. भक्तप्रत्याख्यान मरण का इच्छुक जिन अादि मल. हेम. व. ६३, पृ. १३५)।
लिंगों का पाराधक होता है उनमें से एक है। १ निर्दोष-हिंसादि दोषों से रहित, मन के समा- प्रश्नकुशल--चैत्यसंयतानायिकाः श्रावकांश्च बालधान से-उस की विषयविमखतारूप स्वस्थता से, मध्यम-वद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति ा होने वाले निर्विकार-हास्यादि विकारों से रहित-- कुशलः । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. ४०३)। रसको प्रशान्तरस कहते हैं। यह क्रोधादि के जो साधु चैत्यवासी संयतों, प्रायिकाओं, श्रावकों परित्यागरूप शान्तभाव से उत्पन्न होता है, इसी तथा बाल, मध्यम और वृद्धों से पूछकर निर्यापका
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