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प्रशस्त राग ]
धम्मम्मिय जो राम्रो सुदे य जो बारसविधम्मि ॥ आयरिस य राम्रो समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्ढे । एसो पत्थराम्रो हवदि सरागेसु सव्वेसु ॥ ( मूला. ७, ७३-७४) । ३. प्रशस्तस्त्वर्हदादिविषयः । यथोक्तम्- अरहंतेसु य रागो रागो साहूसु बंभयारीसु । एस पत्थो रागो प्रज्जसरागाण साहूणं ॥ (श्राव. नि. हरि. वृ. १८, पृ. ३८६ ) । ४. प्रशस्तरागो नाम पंचगुरुषु प्रवचने च वर्तमानस्तद्गुणानुरागा - त्मक: । (भ. श्री. विजयो. ५१ ) । ५. रागो यस्य प्रशस्तः- वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षण: पंचपरमेष्ठिनिर्भर गुणानुरागरूपः प्रशस्त धर्मानुरागः × × X । (पंचा. का. जय. वृ. १३५ )। ६. दानशीलोपवास- गुरुजन वैयावृत्त्यादिसमुद्भवः प्रशस्त रागः । नि. सा. वृ. ६) ।
१ अरहन्त, सिद्ध और साधुत्रों में भक्ति; धर्म में व्यवहार धर्मानुष्ठान में— प्रवृत्ति और गुरुश्नों का अनुकरण; इस सब को प्रशस्त राग कहा जाता है । ३ अरहन्तों में राग, साधुओं में राग एवं ब्रह्मचारियों में राग; यह श्रेष्ठ सराग साधुनों का प्रशस्त राग कहलाता है ।
[प्रशस्तेन्द्रियप्रणिधि
७८३, जंन-लक्षणावली रादिवत् प्रशस्तविहायोगतिनाम । ( त वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ जो कर्म उत्तम बॅल व हाथी आदि को प्रशस्त गति के समान उत्तम गति ( गमन) का कारण है उसे प्रशस्त विहायोगतिनामकर्म कहते हैं । प्रशस्त स्थिरीकरण - विसीयमाणस्स चरित्ताइसु थिरीकरणं सत्थं । ( जीतक. चू. गा. २८, पृ. १३) ।
चारित्र आदि के विषय में खेद को प्राप्त होने वाले प्राणी को उसमें स्थिर करना, इसे प्रशस्त स्थिरीकरण कहते हैं ।
प्रशस्ता भावशीति - यः पुनर्हेतुभिस्तेषामेव संयमादिस्थानानामुपरितनेषूपरितनेषु विशेषेष्वध्यारोहति सा प्रशस्तोच्चोपरितन एव क्रमेण भावशीतिस्तावद् द्रष्टव्यं यावत् केवलज्ञानम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १०-४०९)।
जिन हेतु के द्वारा जीव संयमादिस्थानों के उपरितन उपरितन विशेष स्थानों पर श्रारोहण करता है इसे क्रम से प्रशस्त उपरितन भावशीति कहते हैं । उक्त प्रारोहणक्रम केवलज्ञान की प्राप्ति तक जानना चाहिए । प्रशस्तेन्द्रियप्रणिधि १. सद्देसु अ रूवेसु श्र गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न विदुसइ एसा खलु इंदिय पणिही ।। ( दशवं. नि. २६५ ) ; तं ( अट्ठविहं कम्म - रयं ) चेव खवेइ पुणो पसत्थपणही समात्तो ॥ ( दशवै. नि. ३०४) । २. तेसु सद्दादिसु विससु मणुन्नामणुन्नेसु जो रागद्दोसविणिग्गहो सो पसत्थो इंदियपणिधी । ( दशवं. चू. पू. २६६ ) ; जो धम्मणिमित्तं इंदियविसयपयारनिरोधो इंदियविसयपत्ताणं च प्रत्थानं राग-दोसविणिग्गहो कसायोदय निरोधो उदयपत्ताणं कसायाणं विणिग्गहो सा पसत्था पणिधी भण्णई । ( दशवं. चू. पृ. २६९ ) ।
१ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन इष्ट व अनिष्ट इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष नहीं करना; यह प्रशस्त इन्द्रियप्रणिधि कहलाती हैं। इसके श्राश्रय से जीव आठ प्रकार के कर्म-रज को नष्ट करता है। २ इन्द्रियों के विषयसंचार को रोकना, इन्द्रियविषयता को प्राप्त पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना, कषायों के उदय को रोकना, तथा उदयगत कषायों
प्रशस्त वात्सल्य - आयरिय - गिलाण - पाहुण प्रसहुबाल- बुड्ढाईणं श्राहारोव हिमाइणा समाहिकरणं पसत्थं । ( जीतक. चू. २८, पृ. १३) । प्राचार्य, ग्लान, अतिथि, प्रशक्त, बाल और वृद्ध श्रादि को आहार एवं उपाधि श्रादि के द्वारा समाहित करना- उनके संक्लेश को दूर करनायह प्रशस्त वात्सल्य कहलाता है। प्रशस्त विहायोगति - १. वरवृषभ - द्विरदादिप्रशस्तगतिकारणं प्रशस्त विहायोगतिनाम । (त. वा. ८, ११, १८) २. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं सीहकुंजर-वसहाणं व पसत्थगई होज्ज तं पसत्थविहायगदी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७७ ) । ३. जस्सुदणं जीवो वरवसहगईए गच्छइ गइए । सा सुहिया विहगगई हंसाईणं भवे सा उ ॥ ( कर्मवि. ग. १२८ ) । ४. यस्य कर्मण उदयेन सिंह कुंजर - हंसवृषभादीनामिव प्रशस्ता गतिर्भवति तत्प्रशस्तविहायोगतिनाम । ( मूला. वृ. १२ - १६५ ) । ५. तत्र यदुदयाज्जन्तोः प्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, यथा हंसादीनाम्, तत्प्रशस्त विहायोगतिनाम । ( सप्तति. मलय. वृ. ५, पृ. १५३) । ६. गज - वृषभ - हंस-मयू
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