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प्राकार] ७८७, जैन-लक्षणावली
[प्राज्ञश्रमण च प्राकाम्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। सितच्छत्रनिभा शुभा। ऊध्वं तस्याः क्षिते: सिद्धाः १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से स्थल में जल के समान लोकान्ते समवस्थिताः ।। (त. भा. १०, १६-२०, उन्मज्जन-निमज्जन किया जा सकता है तथा भूमि पृ. ३२२)। के समान जल पर गमन विया जा सकता है वह जो प्राग्भार नाम की पृथिवी पतली-मध्य में पाठ प्राकाम्य ऋद्धि कहलाती है । ४ प्राकाम्य ऋद्धि का योजन मोटी होकर सब ओर क्रम से हीन होती हुई धारक जीव प्रचुर अभिलाषायुक्त होता है-वह अन्त में मक्खी के पंख के समान पतली, मनोहर, विषयों के भोगने में समर्थ होता है। ६ भूमिके समान सुगन्धित, पवित्र और दैदीप्यमान होकर मनथ्यलोक जल पर निर्बाध गमन कर सकने का नाम प्रागम्य के समान पैतालीस लाख योजन विस्तृत व सफेद ऋद्धि है । जिस ऋद्धि के होने पर सर्वत्र अगम - छत्र के समान आकार वाली है। उसके ऊपर लोक गमनाभाव-समाप्त हो जाता है, अर्थात सर्वत्र के अन्त में सिद्ध जीव अवस्थित हैं। जाया जा सकता है, उसे प्रागम्य ऋद्धि कहते हैं। प्राचीनदेशावकाशिक- प्राचीनं पूर्वाभिमुखम्, प्राकार-जिणहरादीणं रक्खळं पासेसु विदोलि- प्राच्यां दिश्येतावन्मयाऽद्य गन्तव्यम् XXX त्तीप्रो ट्ठविदानो भित्तीपो] पागारा णाम । (धव. इत्येवंभूतं सः (देशावकाशिकव्रती) प्रतिदिनं प्रत्यापु. १४, पृ. ४०)।
__ ख्यानं विधत्ते । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ७, ७६, जिनगहादिकों की रक्षा के लिये जो उनके पाव- पृ. १८२)। भागों में भी स्थापित (निर्मापित) की जाती हैं पूर्व दिशा में मैं आज इतनी दूर जाऊंगा, इस प्रकार उन्हें प्राकार कहा जाता है।
से जो देशावकाशिकवती पूर्व दिशा में प्राने जाने का प्राकृत भाषा–१. प्रकृतौ भवं प्राकृतम्, स्वभाव- प्रतिदिन नियम करता है, इसे प्राचीनदेशावकासिद्धमित्यर्थः । (बृहत्क. मलय. वृ. २) । २. प्राकृतं शिकव्रत कहते हैं। तज्ज-तत्तुल्य-देश्यादिकमनेकधा । (प्रलं. चि. प्राजापत्य विवाह-१. विनियोगेन कन्याप्रदानात् २-१२०)।
प्राजापत्यः । (नीतिवा. ३१-७, पृ. ३७५) । १ जो भाषावचन प्रकृति (स्वभाव) से सिद्ध हैं २. विनियोगेन विभवस्य कन्याप्रदानात् प्राजापत्यः । उन्हें प्राकृत कहा जाता है । २ संस्कृत से उत्पन्न, (ध. बि. मु. वृ. १-१२)। ३. विभवविनियोगेन उसके सदृश और देशी आदि के भेद से प्राकृत कन्यादानं प्राजापत्यः । (योगशा. स्वो. विव. १-४७; भाषा अनेक प्रकार की है।
श्राद्धगु. पृ. १४; धर्मसं. मान. १, पृ. ५)। ४. तथा प्रागभाव-१. कार्यस्यात्मलाभात् प्रागभवनं प्राग- च गुरुः-धनिनो धनिनं यत्र विषये कन्यकामिह । भावः । (अष्टस. १०, पृ. ६७) । २. उत्पत्तेः पूर्वम- सन्तानाय स विज्ञेयः प्राजापत्यो मनीषिभिः । भावः प्रागभावः । (सिद्धिवि. वृ. ३-१६, प. (नीतिवा. टी. ३१-७ उद्.)। २०४) । ३. क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स १ जिस विवाह में सम्पत्ति के विनियोग के साथ उच्यते । (प्रमाल. ३८५)। ४. यन्निवृत्तावेव कन्या को प्रदान किया जाता है उसे प्राजापत्य कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः । (प्र. न. त. विवाह कहा जाता है। ३-५५)।
प्राज्ञश्रमण-देखो प्रज्ञाश्रवण । प्रकृष्टश्रुतावरण१ कार्य के उत्पन्न होने से पूर्व जो उसका प्रभाव वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणमहाप्रज्ञद्धिलारहता है उसे प्रागभाव कहते हैं। ४ जिसकी निवृत्ति भा अनधीतद्वादशांग-चतुर्दशपूर्वा अपि सन्तो यमर्थ होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है वह प्रागभाव चतुर्दशपूर्वी निरूपयति तस्मिन् विचारकृच्छ्रे ऽप्यर्थेकहलाता है।
ऽतिनिपुणप्रज्ञाः प्राज्ञश्रमणाः । (योगशा. स्वो. विव. प्रागम्य-देखो प्राकाम्य ।
१-८, पृ. ३७-३८)। प्राग्भारवसुधा- देखो ईषत्प्राग्भार । तन्वी श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम से प्रगट हुई असाधारण महाबुद्धि ऋद्धि से युक्त होकर वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता । नृलोकतुल्य विष्कम्भा जो बारह अंगों और चौदह पूर्वो का अध्ययन न
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