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प्रव्रज्याह]
७८१, जैनाक्षणावली -
प्रशस्त करणोपशामना
प्रारम्भ से रहित; धन, धान्य, वस्त्र, हिरण्य, शयन, (आवीचिमरण) प्रतिसमय होने वाला है, तथा प्रासन और छत्र इत्यादि के दुषित दान से रहित विपाक भयानक है। इस प्रकार जिसने संसार की शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निन्दा, लाभ-अलाभ और तृण- निर्गुणता को जान लिया है व इसीलिए जो उससे सुवर्ण इनमें रहने वाले समता भाव से सहित; विरक्त हो चुका है। कषायें जिसकी कृशता को पाहार के निमित्त उत्तम व मध्यम एवं दरिद्र व प्राप्त हो चुकी हैं, जिसके परिहास आदि अल्प हैं, सम्पन्न घर की अपेक्षा न करके सभी जगह ग्रहण जो उपकार का मानने वाला है, विनीत है, जो किये जाने वाले ग्राहार से सहित ; बाह्य-अभ्यन्तर पूर्व में राजा, मंत्री एवं नागरिक जनों के द्वारा परिग्रह से रहित, मान व पाशा से विहीन, राग- बहुमान्य रहा है, द्रोह का करने वाला नहीं है, द्वेष से विरहित, ममता व अहंकार से रहित; कल्याण का अंग है, श्रद्धाल है, स्थिर है, प्रारब्ध स्नेह, लोभ, मोह, विकार, पाप, भय औ' प्राशा से कार्य का अन्त तक निर्बाह करने वाला है, तथा जो रहित; जन्मजात (नग्न) रूप से उपलक्षित; लम्बा- समुपसंपन्न है-श्रात्मसमर्पणरूप सम्यक प्राचरण यमान भजाओं से संयक्त, प्रायुधों से रहित, परकृत द्वारा समीपता को प्राप्त हो चका है: ऐसा महागह में निवास से सहित, उपशम, क्षमा एवं दम- पुरुष प्रव्रज्याह.-----मुनिदीक्षा के योग्य होता है। इन्द्रिय व कषायों के दमन-से युक्त ; शरीरसंस्कार प्रव्राजक -१. प्रव्राजक:-सामायिकव्रतादेरारोपसे रहित, मद, राग व दोष से विरहित; मूढता, यिता। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. २०८) । पाठ कर्म व मिथ्यात्व की विघातक; सम्यक्त्व से २. तत्र सामायिकवतादेरारोपयिता प्रव्राजकाचार्यः । विशुद्ध, तिल-तुष मात्र परिग्रह से रहित; पशु, स्त्री, (योगशा. स्वो. विव. ४-६०, पृ. ३१४) । नपुंसक एवं कुशील जन के संग से रहित; विकथाओं १ जो संयम के अभिमुख हुए किसी अन्य के सामाविहीन, स्वाध्याय एवं ध्यान से युक्त, तप व व्रत यिकादि व्रतों का प्रारोपण कराता है-उनमें एवं गणों से विशद्ध; तधा संयम एवं सम्यक्त्व गुणों दीक्षित करता है-उसे प्रवाजक-प्रवज्यादायकसे विशद्धि को प्राप्त ऐसी प्रव्रज्या-जिनदीक्षा- कहते हैं। यह पांच प्रकार के प्राचार्यों में प्रथम है। हमा करती है। २ भावतः समस्त सावद्ययोग के प्रशम---१. रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः । (त. वा. परित्यागरूप विरतिपरिणाम-संयमस्वीकृति- १, २, ३०) । २. तत्रानन्तानबन्धिनां रागादीनां का नाम प्रव्रज्या है।
मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेक: प्रशमः । (त. प्रव्रज्याह-प्रव्रज्याहः आर्य देशोत्पन्नः १ विशिष्ट- श्लो. १, २, १२, पृ. ८६)। ३. यद्रागादिषु दोषेषु जाति-कुलान्वितः २ क्षीणप्रायकर्ममलः ३ तत एव चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समविमलबुद्धिः ४ दुर्लभं मानुष्यं जन्म मरणनिमित्तं स्तव्रतभूषणम् ।। (उपासका. २२८)। ४. प्रशमः सम्पदश्चपला विषयाः दुःखहेतवः संयोगे वियोग: स्वभावत एव क्रोधादिऋरकषाय-विषविकारकटप्रतिक्षणं मरणं दारुणो विपाकः इत्यवगतसंसारनै- फलावलोकनेन वा तन्निरोधः। (ध. बिम गुण्यः ५ तत एव तद्विरक्तः ६ प्रतनुकषायः ७ अल्प- ३-७) । ५. प्रशमो रागादीनां विगमोऽनन्तानुबन्धिहास्यादिः ८ कृतज्ञः ६ विनीतः १० प्रागपि राजा- नां XXX । (अन.ध.२-५२)। ६. रागादिमात्य-पौरजनबहमतः ११ अद्रोहकारी १२ कल्या- दोषेभ्यश्चेतोनिवर्तनं प्रशमः । (त. वनि प्रत णांगः १३ श्राद्धः १४ स्थिरः १५ समुपसम्पन्नः १-२)। ७. प्रशमो विशयेषूच्चैर्भावक्रोधादिकेष १६ चेति। (ध. बि. ४-३)।
च। लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥ ओ प्रार्य देश में उत्पन्न हया हो, उत्तम कुल व (लाटीसं. ३-७१; पंचाध्या. २-४२६)। न.प्र. आति से युक्त हो, जिसका कर्मरूप मल क्षीण हो शमः कषायाभावः । (ज्ञा. सा. व. २७-३.प्र. रहा हो, इसी से- जो निर्मल बुद्धि से सहित हो; ९०)। मनुष्य पर्याय दुर्लभ है, जन्म मरण का कारण है, १ रागादि दोषों की तीव्रता के प्रभाव का नाम सम्पत्ति चंचल (विनश्वर) है, विषय दुःख के कारण प्रशम है । हैं. संयोग वियोग का अविनाभावी है, मरण प्रशस्त करणोपशामना-१.जा सा सव्वकरणोव
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