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प्रवचनार्थ ]
जिस श्रुति में प्रकृष्ट — शोभायमान — वचनों का काल है उसे प्रवचनाद्धा कहते हैं। यह श्रुतज्ञान का नामान्तर है। प्रवचनार्थ– द्वादशाङ्गवर्णकलापो वचनम्, अर्यते गम्यते परिच्छिद्यत इति अर्थो नव पदार्थाः, वचनं च अर्थश्च वचनार्थी, प्रकृष्टी निरवद्यौ वचनार्थी यस्मि नागमे स प्रवचनार्थः । XX X अथवा प्रकृष्टवचनैरयते गम्यते परिच्छिद्यत इति प्रवचनार्थो द्वादशाङ्गभावश्रुतम् । ( धव. पु. १३, पृ. २८१ - २८२ ) । जिसमें प्रकृष्ट ( निर्दोष) वचन - द्वादशांग का वर्णसमूह - और नौ पदार्थरूप अर्थ है उस श्रागम का नाम प्रवचनार्थ है । अथवा 'प्रकृष्टैर्वचनैः श्रर्यते गम्यते इति प्रवचनार्थ:' इस निरुक्ति के अनुसार द्वादशांग को प्रवचनार्थ कहा जाता है । भावश्रुत प्रवचनी- १. प्रकृष्टानि वचनानि श्रस्मिन् सन्तीति प्रवचनी भावागमः । अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थः सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशाङ्गग्रन्थः वर्णोपादानकारणः । ( धव. पु. १३, पृ. २८३ - २८४) । २. तत्र प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम्, तदस्यास्त्यतिशयवदिति प्रवचनी युगप्रधानागमः । (योगशा. स्वो विव. २- १६, पृ. १८५ ) ।
१ प्रकृष्ट वचन जिसमें रहते हैं उस भावागम को प्रवचनी कहा जाता है । अथवा 'प्रोच्यते इति प्रवचन:' इस निरुक्ति के अनुसार प्रवचन शब्द का वाच्यार्थ पदार्थ है, वह जिसमें रहता है उस द्वादशांग ग्रन्थ का नाम प्रवचनी है । उक्त द्वादशाङ्ग का उपादान कारण वर्ण हैं । २ प्रवचन नाम द्वादशांग का है, जिसे गणिपिटक भी कहा जाता है। वह प्रवचन जिसके प्रतिशययुक्त होता है उसे प्रवचनी या युगप्रधानागम कहा जाता है । प्रवचनीय - प्रबन्धेन वचनीयं व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम् । ( धव. पु. १३, पृ. २८१ ) । 'प्रबन्धेन वचनीयम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसका सन्दर्भ के साथ व्याख्यान किया जाता है उस श्रुत को प्रवचनीय कहते हैं ।
प्रवरवाद - स्वर्गापवर्गमार्गत्वात् रत्नत्रयं प्रवरः, स उद्यते निरूप्यतेऽनेनेति प्रवरवादः । ( धव. पु. १३, पू. २८७ ) ।
स्वर्ग व मोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय को प्रवर कहा
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७७६, जैन- लक्षणावली
[ प्रविचार
जाता है, उसका जिसके द्वारा निरूपण किया जाता है उस श्रुतज्ञान का एक नाम प्रवरवाद है । प्रर्वातिनीपदार्हा व्रतिनी- जितेन्द्रिया विनीता च कृतयोगा धृतागमा। प्रियंवदा प्राञ्जला च दयाद्रकृत मानसा || धर्मोपदेशनिरता सस्नेहा गुरु-गच्छयोः । शान्ता विशुद्धशीला च क्षमावत्यतिनिर्मला ॥ निःसंगा लिखनाद्येषु कार्येषु सततोद्यता । धर्मध्वजा
पधिषुकरणीयेषु सत्तमा । विशुद्धकुलसंभूता सदा स्वाध्यायकारिणी । प्रवर्तिनीपदं सा तु व्रतिनी ध्रुवमर्हति ॥ ( आ. दि. पू. ११९ उद्) । जितेन्द्रिय, विनम्र, मन की की एकाग्रता से सहित, श्रागम में निपुण, प्रिय बोलने वाली, सरल, दयालु, धर्म के उपदेश में उद्यत, गुरु व गच्छ के विषय में स्नेह से संयुक्त, शान्त, निर्मल शील की धारक, क्षमाशील, परिग्रह से रहित, लेखन श्रादि कार्यों में निरन्तर उद्यत, करने योग्य धर्मध्वज श्रादि उपाधियों के विषय में अतिशय श्रेष्ठ, निर्दोष में कुल उत्पन्न हुई और निरन्तर स्वाध्याय करने वाली; इन गुणों से सम्पन्न व्रतिनी (साध्वी ) प्रवर्तनीपद के योग्य - साध्वियों को अधिष्ठात्री होती है । प्रवाद - दर्शन मोहोदय परवशैः सर्वथैकान्तवादिभिः प्रकल्पिता वादाः प्रवादा: । ( युक्त्यनु. टी. ६) । दर्शन मोहनीय कर्म के परवश हुए सर्वथा एकान्तवादियों के द्वारा कल्पित वादों का नाम प्रवाद है । प्रविचक्षण - प्रविचक्षणाः चरणपरिणामवन्तः अन्ये तु व्याचक्षते - XX X प्रविचक्षणाः श्रवद्यभीरवः । ( दशवै. सू. हरि. वृ. २ - ११, पृ. ६) । जो चारित्र परिणाम से युक्त होते हैं वे प्रविचक्षण कहलाते हैं । मतान्तर से पाप से डरने वालों को प्रविचक्षण कहते हैं ।
प्रविचार - देखो प्रवीचार । १. प्रविचारा मैथुनोपसेवनम् । ( स. सि. ४-७ ) । २. कायप्रवीचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् । ( त. भा. ४–८)। ३. मैथुनोपसेवनं प्रवीचारः । XXX प्रविचरणं प्रवीचारः, मैथुनव्यवहार इत्यर्थः । (त. वा. ४, ७, १) । ४. प्रवीचरणं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । (त. श्लो. ४-७ ) । ५. प्रवीचारो मैथुनोपसेवा । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४-८ ) । ६. प्रवीचार: स्पर्शनेन्द्रियाद्यनुरागसेवा । (मूला. वृ. १२-२ ) । १ मैथुनसेवन का नाम प्रवीचार है ।
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