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प्रवचनप्रभावना]
७७८, जैन-लक्षणावली
[प्रवचनाद्धा
से अभिन्न होने के कारण संघ अथवा प्रथम गणधर १ जिस प्रकार गाय बछड़े से स्नेह करती है उसी को भी प्रवचन कहा जाता है। ३ बारह अंगस्वरूप प्रकार से सामिक जन के विषय में प्रेम करना, सिद्धान्त (श्रुत) का नाम प्रवचन है। उस प्रवचन में इसे प्रवचनवत्सलता कहते हैं। ४ बारह अंग स्वरूप होने वाले देशवती, महाव्रती और असंयतसम्यग्द- प्रवचन में तथा देशवती, महाव्रती और सम्यग्दृष्टि ष्टियों को भी प्रवचन कहा जाता है।
जीवों में ममत्वबुद्धिपूर्वक अनुराग रखना व उनकी प्रवचनप्रभावना-पागमस्स पवयणमिदि सण्णा, अभिलाषा करना, इसका नाम प्रवचनवत्सलता है। तस्स पहावणं णाम वण्णजणणं तढिकरणं च । प्रवचनविराधना--यदि श्वादयो बालमृतकलेव(घव. पु. ८, पृ. ६१) ।
रादिभक्षयन्तस्तिष्ठन्ति तदा महती प्रवचनकुत्सेति पागमार्थ का नाम प्रवचन है, उसकी प्रशंसा व प्रवचनविराधना । (व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२५, वद्धि करना, इसे प्रवचनप्रभावना कहते हैं। प्रवचनभक्ति-१. तम्हि (पवयणम्मि) भत्ती तत्थ भिक्षा प्रादि के निमित्त से सूनी वसति के छोड़ पदुप्पादिदत्थाणदाणं । (धव. पु. ८, पृ. ६०)। जाने पर यदि उसमें बाल निर्जीव शरीर (शव) २. प्रवचने जिनसूत्रेऽनुरागो भक्तिः । (भावप्रा. टी. आदि का भक्षण करते हुए कुत्ता प्रादि स्थित रहते ७७) । ३. प्रवचने रत्नत्रयादिप्रतिपादकलक्षणे मनः- हैं तो यह प्रवचन को भारी विराधना मानी शुद्धियुक्तोऽगुरागः प्रवचनभक्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. जाती है। ६-२४) ।
प्रवचनसन्निकर्ष-उच्यन्ते इति वचनानि जीवा१बारह अंगस्वरूप प्रवचन में प्रतिपादित अर्थ का द्यर्थाः, प्रकर्षेण वचनानि सन्निकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवअनुष्ठान करना-तदनुसार आचरण करना--इसे चनसन्निकर्षों द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, प्रवचनभक्ति कहते हैं।
पृ. २८४)। प्रवचनवत्सलत्व-देखो प्रवचन । १. वत्से धेनु- 'उच्यन्ते इति वचनानि' इस निरुक्ति के अनुसार वत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । (स. सि. ६, जिनका कथन किया जाता है उन जीवादि पदार्थों को २४) । २. अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल- वचन कहा जाता है। जिसमें प्रकर्षरूप से वचनों का वृद्ध-तपस्वि-शैक्ष-ग्लानादीनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहका- सन्निकर्ष किया जाता है वह प्रवचनसन्निकर्ष कहरित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति । (त. भा. ६-२३)। लाता है। यह एक श्रुतज्ञान का नामान्तर है। ३. वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, उनमें किसी एक की यथा धेनुर्वत्से अकृत्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्मा- विवक्षा के होने पर शेष धर्मों के सत्त्व व प्रसत्त्व णमवलोक्य स्नेहार्दीकृतचित्तता प्रवचनवत्सलत्वमि- के विचार तथा किसी एक के उत्कर्ष को प्राप्त होने त्युच्यते । (त. वा. ६, २४, १३)। ४. तेसु (पव- पर शेष धर्मों के उत्कर्ष व अनुत्कर्ष के विचार का यणे देस-महव्वइ-असंजदसम्माइद्रीसु च) अणुरागो नाम सन्निकर्ष है।
आकंखा ममेदंभावो पवयणवच्छलदा णाम । (धव. प्रवचनसंन्यास-देखो प्रवचनसन्निकर्ष । प्रकर्षण पु. ८, पृ. ६०)। ५. धेनोरिव निजवत्से सौत्सुक्य- वचनानि जीवाद्याः संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्ताधियः सधर्मणि स्नेहः । प्रवचनवत्सलता स्यात् सस्नेहः त्मतया अनेनेति प्रवचनसंन्यासः । (धव. पु. १३, पृ. प्रवचने यस्मात् ॥ (ह. पु. ३४-१४८)। ६ तेषु २८४)। (प्रवचने देश-महावतिषु असंयतसम्यग्दृष्टिषु च) जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का प्रकर्ष से अनुराग: आकांक्षा ममेदभाव: प्रचवनवत्सलत्वमित्यु- संन्यास किया जाता है-उनकी अनेकान्तरूप से च्यते । (चा. सा. पृ. २६)। ७. यथा सद्य:प्रसूता प्ररूपणा की जाती है-उस श्रुतज्ञान का नाम धेनुः स्ववत्से स्नेहं करोति तथा प्रवचने समिणि प्रवचनसंन्यास है। जने स्नेहलत्वं प्रवचनवत्सलत्वमभिधीयते। (त. वत्ति प्रवचनाद्धा-अद्धा कालः, प्रकृष्टानां शोभनानां श्रुत. ६-२४)। ८. समिणि स्नेहः प्रवचनवत्सल- वचनानामद्धा कालः यस्यां श्रुतौ सा पवयणद्धा श्रुतत्वम् । (भावप्रा. टी. ७७) ।
ज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. २८४) ।
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