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प्रयोग क्रिया ]
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भा. हरि. वृ. ६-६ ) । ४. कायादिभिः परेषां यद्गमनादिप्रवर्तनम् । सदसत्कार्यसिद्ध्यर्थं सा प्रयोगक्रिया मता ॥ (त. इलो. ६, ५, ४) । ५. आत्माधिष्ठितकायादिव्यापारः प्रयोगः, तत्र योगत्रयकृता ( तं) पुद्गलानां ग्रहणं प्रयोगक्रिया, घावन-वलनादिः काय व्यापारी वा प्रयोगक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) । ६. गमनागमनादिषु मनोवाक्कायैः परप्रयोजकत्वं प्रयोगक्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६-५) । १ शरीरादि के द्वारा जाने श्राने में प्रवृत्त होना, इसका नाम प्रयोग क्रिया है । ५ जोव से श्रधिष्ठित शरीर आदि के व्यापार को प्रयोग कहा जाता है, तीन योगों के द्वारा जो पुद्गलों का ग्रहण होता है उसे प्रयोगक्रिया कहते हैं । अधवा दौड़ने व मुड़ने आदि रूप शरीर के व्यापार को हिंसाजनक या कठोर वचन की प्रवृत्ति को; तथा द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या आदिरूप मन के व्यापार को प्रयोगक्रिया जानना चाहिए । प्रयोगगति- - १. इषु चक्र - कणयादीनां प्रयोगगतिः । (त. वा. ५, २४, २१) । २. प्रयोगगतिः जीवगतिपरि- (सिद्ध. वृ. 'जीवपरि' ) णामसम्प्रयुक्ता शरीराहार-वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श - संस्थानविषया । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ५-२२ ) ।
१ बाण, चक्र और कणय (बाण) यादि की जो गति होती है वह प्रयोगगति कहलाती है । २ जीव के गति परिणाम से सम्बद्ध शरीर सम्बन्धी श्राहार, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और प्राकृतिविषयक गति का नाम प्रयोगगति है । प्रयोगज परिणाम - चेतनस्य Xx X X ज्ञानशील - भावनादिलक्षण: प्राचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्त त्वात् प्रयोगजः । श्रचेतनस्य च मृदादेः घटसंस्थानादिपरिणामः कुलालादिप्रयोग निमित्तत्वात् प्रयोगज: । (त. वा. ५,२२, १० ) ।
दूसरे के प्रयोग के निमित्त से चेतन या प्रचेतन पदार्थ में जो परिणमन होता है उसे प्रयोगज परिणाम कहते हैं । जैसे—जीव में प्राचार्य प्रादि पुरुषविशेष के प्रयोग के श्राश्रय से ज्ञान, शील व भावना श्रादिरूप परिणाम होता है तथा प्रचेतन मिट्टी आदि का कुम्हार आदि के प्रयोग के निमित्त से घटाकारादिरूप परिणाम होता है ।
प्रयोगज शब्द - देखो प्रायोगिक शब्द । प्रयोगजो
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जैन - लक्षणावली
[ प्रयोगबन्ध
जीवव्यापार निष्पन्नः षोढा ततादिः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५- २४, पृ. ३६० ) ।
जीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाले तत-विततादि छह प्रकार के शब्द प्रयोगज ' शब्द कहलाते हैं । प्रयोगपरिणाम — प्रयोगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमात् क्षयाद्वा चेष्टा रूपः परिणामः प्रयोगपरिणामः । (त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. १० -५ ) | वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से अथवा क्षय से उत्पन्न होने वाले चेष्टारूप परिणाम को प्रयोगपरिणाम कहते हैं । प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा - १. पोगपच्चयफड्ढगस्स परूवणा णाम वीरितकारणत्ताए चेट्ठतस्स कज्जाभासारिणा विसमवीरितप्परिणामबद्धाणं जीवप्पदेसाणं परूवणा पत्रोगपच्चयफड्ढगपरूवणा । ( कर्मप्र. चू. बं. क. २२ - उत्थानिका) । २. तथा प्रकृष्टो योगः प्रयोगः, तेन प्रत्ययभूतेन कारणभूतेन ये गृहीताः कर्मपुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्द्धकप्ररूपणा प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा । ( पंचसं. मलय. वृ. बं. क. १६, पृ. २१ ) ।
२ प्रयोग का अर्थ है प्रकृष्ट (तीव्र) योग, इस प्रयोग के निमित्त से ग्रहण किये गये कर्म-पुद्गलों के स्नेह के श्राश्रय से जो स्पर्द्धकों की प्ररूपणा की जाती है उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा कहते हैं । प्रयोगबन्ध - १. पुरुषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिक :
जीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षणः, जीवाजीव विषयः कर्म-नोकर्मबन्धः । (स. सि. ५ - २४ ) । २. प्रयोगप्रयोजनो बन्धः प्रायोगिकः । स द्वेधा प्रजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति । तत्राजीवविषयो जतु-काष्ठादिलक्षणः, जीवाजीवविषयः कर्म- नोकर्मबन्धः । (त. वा. ५, २४, ९ ) । ३. प्रयोगबन्धो जीवव्यापारनितितः श्रदारिकादिशरीर जतु- काष्टादिविषयः । (त. भा. हरि. वृ. ५-२४) । ४ जीववावारेण जो सभुप्पण्णी बंधो सो पत्रोग्रवंधो णाम । ( धव. पु. १:४, पृ. ३७ ) । ५. प्रयोगो जीवव्यापारः तेन घटितो बन्धः प्रायोगिकः — श्रौदारिकादिशरीर जतु- काष्ठादिविषय: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२४) ।
१ पुरुषप्रयोग के निमित्त से जो प्रजीवविषयक - जैसे लाख और लकड़ी का बन्ध-श्रौर जीवाजीवविषयक कर्म - नोकर्म का बन्ध - होता है वह प्रायोfre बन्ध कहलाता है । ३ जीव के व्यापार से जो
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