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प्रतिश्रवण] ७४६, जैन-लक्षणावलो
[प्रतिषेवणादोष लोमो। (उत्तरा. नि. ४३) । २. अनभिप्रेतश्च सत्-असदात्मक वस्तु में असत् अंश को प्रतिषेध प्रतिलोम उक्तविपरीतकाकस्वरादिरिति । (उत्तरा. कहते हैं। नि. शा. वृ. ४३)।
प्रतिषेधप्रत्याख्यान-विवक्षितद्रव्याभावाद् वि१कौए के स्वर आदि के समान जो इन्द्रियविषय शिष्टसम्प्रदानकारकाभावाद्वा सत्यामपि दित्सायां यः अभीष्ट नहीं हैं उन्हें प्रतिलोम कहा जाता है। प्रतिषेधस्तत्प्रतिषेधप्रत्याख्यानम् । (सूत्रकृ. नि. शी. प्रतिश्रवण-उवयोगंमि य लाभं कभ्मग्गाहिस्स वृ.२-११६, पृ. १०७) । चित्तरक्खट्टा । आलोइए सुलद्धं भणइ भणंतस्स पडिसुणणा ॥ (पिण्डनि. ११६) ।
सम्प्रदानकारक (पात्र विशेष) के प्रभाव से जो
उसका प्रतिषेध किया जाता है उसे प्रतिषेधप्रत्याप्राधाकर्म ग्रहण के लिए प्रवत्त शिष्य के चित्त की
न कहते हैं। रक्षा के लिए--वह मन में खेद को प्राप्त न हो,
प्रतिषे (से)वक-१. प्रतिषिद्धं सेवत इति प्रतिइस विचार से-गुरु उपयोग के समय 'लाभ' शब्द
षेवकः प्रतिषेवण क्रियाकारी। (व्यव. भा. पी. का उच्चारण करता है तथा जब उक्त शिप्य गृहस्थ
मलय. वृ. १-३७); प्रतिषेवको नामाकल्पं सेवके यहां से लाकर उसकी मालोचना करता है, तब
मानः । (व्यव. भा. मलय. वृ. १-३८); लघु गुरु जो यह कहता है कि 'तुमने जो यह प्राप्त किया है सो ठीक हुआ', इस प्रकार कहने वाले गुरु
शीघ्रमुत्तरगुणानां सेवकः प्रतिसेवकः । (व्यव. भा.
पी. मलय. बृ. १-५१) । २. ज्ञान-दर्शन-चारित्रके प्रतिश्रवण नाम का दोष होता है।
तपांस्युपजीवन तत्प्रतिसेवक उच्यते। (प्रव. सारो. प्रतिश्रवणानुमति- १. पुत्ताईहिं कयं पावं सुणइ,
पुणइ, वृ. ७२५)। सच्चा अणमोएइन पडिसेहेइ सो पडिसुणणाणुमई। १ जो निषिद्ध (अकल्प्य) वस्तु का सेवन करता है (कर्मप्र. चू. उप. क. २६)। २. पुत्रादिभिरुदितं
उसे प्रतिषेवक कहा जाता है। २ ज्ञान, दर्शन, सावधं योगं शृणोति, न च प्रतिषेव[धते प्रतिश्र
चारित्र और तप का प्राश्रय लेने वाला तत्प्रतिबयानमतिः। (पंचसं. स्वो. वृ. उप. क. ३०, पृ. सेवक-क्रम से ज्ञान-दर्शनादि का प्रतिसेवक १६७) । ३. यदा तु पुत्रादिभिः कृतं पापं शृ
(ज्ञानादिप्रतिसेवनाकुशील) कहलाता है। णोति, श्रुत्वा चानुमनुते, न च प्रतिषेधति, तदा
प्रतिषेवणा-प्रतिषेवणा अकल्प्यसमाचरणम् । प्रतिश्रवणानुमतिः । (पंचसं. मलय. वृ. उप. क..
(व्यव. भा. पी. मलय. वृ. १-३७ व ३८)। ३०, पु. १६८)।
जो पाचरण साधु पद के योग्य नहीं है, ऐसे प्रकल्प्य १ पूत्रादि के द्वारा किये गये पाप को सुन कर जब
पाचरण का नाम प्रतिषेवणा है। उसका अनुमोदन करता है, पर प्रतिषेध नहीं करता
प्रतिषेवणादोष-अन्नेणाहाकम्म उवणीयं असइ है, तब इसे प्रतिश्रवणानमति कहा जाता है।
चोइरो भणइ । परहत्थेणंगारे कड्ढेतो जह न प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धि-अन्त्यपदस्यार्थं ग्रन्थं ढज्झइ ह ॥ एवं ख अहं सद्धो दोसो देंतस्स क च परत उपश्रुत्य ततः प्रातिकूल्येनादिपदादा अर्थ
उवमाए । समयत्थमजाणतो मूढो पडिसेवणं कूणइ ।। ग्रन्थविचारपटवः प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धयः । (योग- (पिण्डनि. ११४-१५) ।। शा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३८)।
दूसरेके द्वारा लाकर दिये गये अध:कर्म-संयुक्त आहार किसी ग्रन्थ के अन्तिम पद के अर्थ और अन्य को को जो खाता है तथा इसके लिए दूसरे के द्वारा दसरे से सुनकर अन्तिम पद से लेकर प्रादि पद तक निन्दा की जाने पर जो यह कहता है कि जिस अर्थ और ग्राम के विवार में जो साधु कुशल हैं वे प्रकार दूसरे के हाथ से अंगारों को खिंचवाने वाला प्रतिश्रोतःपदानुसारिबुद्धि ऋद्धि के धारक होते हैं। नहीं जलता है, किन्तु उसका खींचने वाला ही प्रतिषेध-प्रतिषेधोऽसदंशः । (प्र. न. त. ३-५३); जलता है, उसी प्रकार दूसरे के द्वारा लाये गये सदसदंशात्मके एव वस्तून्यसदंशोऽभावांशापरनामा प्राधाकर्म का सेवन करने पर भी मैं निर्दोष हं. प्रतिषेधः प्रतिपत्तव्यः । (स्याद्वादर. ३-५३) । दोष तो उसे देने वाले का है, इस प्रकार अनुचित
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