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आत्मा का अस्तित्व थे, यानी मेरी यह मान्यता कुल-परम्परागत है, इसलिए मैं उसे कैसे छोड मकता हूँ?
आचार्य- "हे राजन् । अगर तू अपनी इस मान्यता को नहीं छोड़ेगा तो उस लोहे के बोझ को न छोडने वाले कदाग्रही पुरुप की तरह तुझे पछनाना पड़ेगा।'
राजा-"यह लोहे का बोझ न छोड़नेवाला कदाग्रही पुरुष कौन था ? और उसे क्यो पछताना पडा ?" ।
आचार्य-- "हे राजन् ! अर्थ के कामी कुछ लोग अपने साय बहुतसा पाथेय लेकर चलते-चलते एक बडी अटवी में जा पहुंचे। वहाँ एक जगह उन्होने बहुत से लोहे से भरी हुई खान देखी। वे परस्पर कहने लगे कि, यह लोहा हमारे लिए बडा उपयोगी है, इसलिए उसका बोझ बाँधकर साथ ले चलना अच्छा है। फिर वे उसका बोझ बॉधकर अटवी में आगे बढ़े। वहाँ एक सीसे की खान दिखायी दी। सीसा लोहे ने ज्यादा कीमती होता है, इसलिए सबने लोहे का बोझ छोड़कर सीसा बाँध लिया। लेकिन, एक ने अपने लोहे का बोझ न छोडा। साथियो ने उसे बहुत समझाया, तो वह बोला,-'यह बोझ मै बड़ी दूर से उठाकर लाया हूँ और उमे खूब मजबूती से बाँधा है, इसलिए इसे रख कर मे नीसा का बोझ नहीं बाँधना चाहता।'
अब वह मडली अटवी में आगे बढी । वहाँ क्रम से ताँबे की, चॉदी की, सोने की, रत्न की और हीरे की खाने दिखायी दी । इसलिए, वे कम कीमत की चीजो के बोझ छोडते गये और ज्यादा कीमत की चीजो के बोझ बॉवते गये । ऐसा करके वे अपने नगर में पहुँचे । वहाँ उन्होने वह बहुमूल्य हीरे बेचे । इससे वे बड़े धनवान हो गये और सुख से रहने लगे । उस कदाग्रही आदमी ने अपना लोहे का बोझ बेचा, तो बहुत-थोड़े पैसे मिले । इससे वह खिन्न होकर सोचने लगा, 'अगर मैंने भी अपने साथियो की तरह लोहे का बोझ छोड़कर ज्यादा कीमती चीजे ली होती, तो मै भी