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श्रात्मा का अस्तित्व
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कर चले जाने का सामर्थ्य जीव में हैं, इसलिए उसे कहीं भी बन्द कर दिया जाये, तब भी वह बाहर निकल सकता है ।'
राजा - "हे भते ! 'जीव' और 'शरीर' अलग नहीं है । मेरी इस धारणा का समर्थन करने वाला दूसरा प्रमाण भी सुनिये । मेरा कोतवाल एक चोर को पकड़ लाया । मैने उसे मारकर लोहे की कुम्भी में बन्द कर दिया । उसके ऊपर मजबूत ढक्कन लगा दिया, उसे पूरी तरह बढ़ कराकर उस पर पक्की चौकी बिटा दी । फिर, कुछ दिनो बाद उस कुम्भीको खोल कर देग्या तो उसने कीडे किलबिला रहे थे । उस कुम्भी में कहीं भी घुसने की जगह नहीं थी, फिर भी उसमे इतने कीडे कहाँ से आ गये ? इसलिए मैं तो यहीं समझता हॅू कि जीव और शरीर एक ही है और वे सब शरीर में से ही पैदा होने चाहिए |
आचार्य - " तूने कभी गर्म किया हुआ लोहा देखा है । या तूने कभी लोहा गर्म किया है ?"
राजा - "हॉ भते ! मैने गर्म लोहा देखा है और स्वय भी गर्म किया है ।'
आचार्य - " गर्म होकर लोहा लाल हो जाता है न " राजा - "हॉ भते । हो जाता है ।"
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आचार्य - "हे राजन् | उस ठोस लोहे में अग्नि किस तरह घुस गयी ? उसमें जरा सा भी छिद्र न होने पर भी जैसे उसमें अग्नि प्रविष्ट हो गयी, उसी प्रकार 'जीव' भी अत्यन्त तीव्र गतिशील होने की वजह से सर्वत्र प्रविष्ट हो सकता है । इसलिए, तृने कुम्भी में जो जीव देखे, वे बाहर से घुसे थे । '
राजा - "हे भते । एक बार मैने एक चोर को जिन्दा तुलवाया, फिर उसे मरवा कर तुलवाया, तो उसके वजन मे जरा भी फर्क न पड़ा। अगर 'जीव' और 'शरीर' अलग हो, तो जीव के निकल जाने पर उसके शरीर का
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