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आत्मा का अस्तित्व
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मानने में नहीं आती। इसलिए 'जीव' और 'शरीर' अलग नहीं बल्कि एक ही है, ऐसी मान्यता मुझमें दृढ हो गयी है ।'
आचार्य - 'हे राजन् | मानले कि तू देव मंदिर में जाने के लिए स्नान किने हुए हैं, गीले कपडे पहने हुए हैं, और हाथ में कलश धूपदान हैं, और तू ढंवमंदिर में पहुँचने के लिए पैर बढ़ा रहा है । उस समय पाखाने में बैठा हुआ कोई पुरुष तुझमे यह कहे कि, आप यहाँ पाखाने में आइये, बैटिये, खडे रहिये और घडी भर गरीर लम्बा कीजिये,' तो हे राजन् ! क्या तू उसकी बात मानेगा ?"
राजा - "हे मते । मैं उसकी बात बिलकुल नहीं मानूँगा, पाखाना बडा गढा होता है, ऐसी गढ़ी जगह में कैसे जा सकता हूँ ?"
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आचार्य श्री — "हे राजन् | उसी प्रकार देवगति को प्राप्त हुई तेरी दादी यहाँ आकर तुझमे अपने मुखो को कहना चाहे तो भी नहीं आ सकती | स्वर्ग में नया उत्पन्न हुआ देव मनुष्यलोक में आना तो चाहता हैं, पर चार कारणों से वह यहाँ आ नहीं सकता । एक तो, वह देवस्वर्ग के दिव्य काम-मुग्लो में अत्यन्त लिप्त हो जाता है और मानवी सुग्बो में उसकी रुचि नहीं रहती । दूसरे, उस देव का मनुष्य-सम्बन्ध टूटा हुआ होता "है और वह देव-देवियो के साथ जुडे हुए नये प्रेम-सम्बन्ध में लगा रहता है । तीसरे, दिव्य सुखों में पड़ा हुआ वह देव 'अब जाता हूँ, अब जाता हूँ' सोचता रहता हैं, इस तरह बहुत काल बीत जाता है और मनुष्य-लोक के अल्पायुपी सम्बन्धी मर चुके होते हैं, कारण कि देव- मुख के कारण उनको काल व्यतीत होने का भास नहीं होता और हमारे हजारो वर्ष देवो को पल मात्र में बीत जाते है । चौथे, मनुष्य-लोक की दुर्गंध बहुत होती है, वह ऊपर चार- सौ- पॉच सौ योजन तक फैली होती है । उसे देव सह नहीं सकता। इसलिए स्वर्ग में गया हुआ प्राणी यहाँ नहीं आ सकता । इससे तू समझ गया होगा कि तेरी दादी जो यहाँ आ नहीं सकी, उसका कारण स्वर्ग के आनन्द की अभिरुचि है, न कि यह कि स्वर्ग नाम की गति नहीं है"