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करती है और उसके मुख से उपदेशामृत पान करने के लिए लालायित रहती है । वह जो कुछ भी कहता है, उस पर चलने के लिये प्रयत्न करती है । अतः आचार-विषयक ग्रन्थों का सबसे पहले अध्ययन करना चाहिए । तभी शेष दो विषय अर्थात् सिद्धान्त और उपदेश में सफलता प्राप्त हो सकती है । सिद्ध यह हुआ कि भाव-शुद्धि बिना श्रुताध्ययन के नहीं हो सकती और श्रुतों में सब से पहले आचार-विषयक श्रुत का अध्ययन करना। चाहिए ।
यह आचार भी दो प्रकार का कथन किया गया है-साधु आचार और गृहस्थ । आचार | साधुओं के लिए जो आचार-विषयक नियम हैं, उनको साधु-आचार और गृहस्थों के लिए जो नियम हैं, उनको गृहस्थाचार कहते हैं । जिन ग्रन्थों में इन दोनों प्रकार के आचार का वर्णन किया गया हो, उनका विशेष रूप से अध्ययन करना अधिक श्रेयस्कर है । हमने यहां जिस सूत्र की व्याख्या की है, वह भी ऐसे ही ग्रन्थों में से एक है
इस सूत्र के अध्ययन के लिए तथा विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपक्रम, : नय और निक्षेप का वर्णन अनुयोग द्वार सूत्र से जान लेना बहुत आवश्यक है, क्योंकि यहां स्थान-२ पर इन विषयों के संक्षिप्त परिचय की आवश्यकता प्रतीत होती है।
_ इस ग्रन्थ या सूत्र का नाम 'दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' है । इसका ‘स्थानांगसूत्र' के दशवें । स्थान में 'आचारदशा' के नाम से भी उल्लेख मिलता है | जैसे "आयारदसाणं दस
१ पंचवीस परियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पण्णत्तिकुसले संगहकुसले उवग्गहकुसले अक्खुयायारे असबलायारे अभिण्णायारे असंकिलिट्ठायारे चरित्ते बहुसुए बब्भागमे जहण्णेणं दसाकप्पववहारे कप्पति आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । (व्यवहार सूत्र उद्देश ३ सू० ५) पंचवीस वास परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पति दसाकप्प ववहारनामं अज्झयणे उद्दिसित्तए वा । (व्यवहार सू० उ. सू० २८) छब्बीसं दस कप्पा ववहाराणं उद्देसणकाला प० तं० दसदसाणं छ कप्पस्स दस ववहारस्स । (समवायांग सू० समवाय १६). ठाणंग सू० स्थान ६ पद्मचरित्रप्रश्नव्याकरण सू० पांचवाँ संवरद्वारउत्तराध्ययन सू० अ० ३६ गा० ६७
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