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भूमिका
प्राक्कथन में स्पस्ट किया जा चुका है कि भाव की शुद्धि श्रुताध्ययन से ही हो सकती है । वह श्रुत चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है - चरणकरणानुयोग, धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग । इनमें चरणकरणानुयोग का वर्णन कालिक श्रुत आदि में है, धर्मानुयोग के ऋषि-भाषित आदि सूत्र हैं, गणितानुयोग के सूर्य - प्रज्ञप्ति आदि सूत्र हैं और द्रव्यानुयोग का पूर्ण वर्णन करने वाला दृष्टि-वादांग है । इसके अतिरिक्त थोड़ा बहुत द्रव्य-विषयक वर्णन अंग या उपांग आदि सूत्रों में भी मिलता है ।
हमें यहां चरणकरणानुयोग के विषय में ही विशेष रूप से कुछ कहना है, क्योंकि हमारा प्रस्तुत शास्त्र 'दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' इसी से विशेष सम्बन्ध रखता है ।
इससे पहले कि हम प्रस्तुत - ग्रन्थ के विषय में कुछ कहें, हमें यह आवश्यक प्रतीत होता है कि 'श्रुताध्ययन' के विषय में कुछ कह दें। पहले हम कह चुके हैं कि 'श्रुत' धर्मशास्त्रों की संज्ञा है । जिन ग्रन्थों में सिद्धान्त, उपदेश और आचार के विषय में कहा गया है उन्हीं को धर्मशास्त्र या श्रुत कहते हैं । इनमें व्यावहारिक दृष्टि से आचार को ही 1 सर्व प्रथम स्थान दिया जा सकता है और देना चाहिए । क्योंकि जिस व्यक्ति का आचार ही शुद्ध नहीं होगा, उसका सिद्धान्त विषय पर चित्त ही कैसे लगेगा । उपदेश तो उसके लिए असम्भव सा प्रतीत होता है । क्योंकि उसी व्यक्ति का जनता पर प्रभाव पड़ता है, जिसका अपना आचार शुद्ध हो । यदि कोई शराबी दूसरों को शराब न पीने का उपदेश करे तो सुनने वाले उसको मान के स्थान पर घृणा की दृष्टि से देखेंगे । किन्तु जिस व्यक्ति का आचार शुद्ध होता है, उसके बिना कुछ कहे ही जनता उसकी सेवा - भक्ति
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