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बोल ३ रा पृ० ३३७ से ३३९ तक। तेजः पद्म लेश्यामें जो सरागीका सदभाव मानते हैं उनके मतमें अष्टम, नवम और दशम गुण स्थान वाले साधुओंमें भी तेजः पद्म लेश्या होनी चाहिये ।
बोल चौथा पृ० ३३९ से ३४१ तक पन्नावणा सूत्र १७ के मूरपाठमें भगवती सूत्रकी तरह साधुओंमें भाव रूप कृष्ण टेश्याका निषेध किया है परन्तु सदभाव नहीं बताया है।
बोल पांचवां ३४१ से ३४२ तक भगवती सुत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलमें छः द्रव्य लेश्या कही है भाव लेश्या नहीं।
बोल छट्ठा पृ० ३४२ से ३४५ तक भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है।
बोल सातवां पृ० ३४३ से ३४५ तक उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३४ गाथा ३१॥३२ में अजितेन्द्रियता और चोरी आदिमें प्रवृत्त रहना कृष्ण लेश्याका लक्षण कहा है परन्तु साधु जितेन्द्रिय और चोरी मादि दुष्कर्मसे निवृत्त रहते हैं इस लिये उनमें कृष्ण लेश्याके लक्षण नहीं हैं।
बोल आठवां पृ० ३४५ से ३४७ तक उत्तराध्ययन सत्र म० ३४ गाथा ३१।३२ में बताये हुए कृष्ण लेश्याके रक्षण सामान्य साधुमें भी नहीं पाये जाते फिर भगवान् महावीर स्वामी में उनके होनेके विषय में कहना ही क्या है।
बोल नवां पृ० ३४८ से ३४९ तक . पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील दोषके प्रतिसेवी होते हैं परन्तु उनमें तीन विशुद्ध भाव लेश्या ही होतो हैं इस लिये अप्रशस्त भाव लेश्याके विना दोषका प्रतिसेवन नहीं होता यह कहना भी अज्ञान है।
बोल दसवां पृ० ३५० से ३५१ तक यदि विराधक होनेसे कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी हो तो फिर निग्रंथको भी दोषका प्रतिसेवी कहना चाहिये क्योंकि भगवती शतक २५ उद्देशा ६के मूलपाठमें कषाय कुशीलकी तरह निपथ भी विराधक कहा गया है।
बोल ११ वां पृष्ठ ३५१ से ३५३ तक शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये साधु प्रतिक्रमण करता है परन्तु चार ध्यानोंके साधुओंमें होनेसे नहीं।
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