________________
बोल तेरहवां पृष्ठ ३२३ से ३२४ तक - केवलोकी तरह छद्मस्थ तीर्थ कर भी आगम व्यवहारी और कल्पातीत होते हैं इस लिये सूत्र व्यवहारीके कल्पका नाम लेकर उनमें दोषका स्थापन नहीं किया जा सकता।
. बोल चौदहवां पृ० ३२४ से ३२५ तक भगवती शतक २५ उहे शा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलको कल्पातीत भो . कहा है।
वोल पन्द्रहवां पृ० ३२५ से ३२७ तक भगवती ठाणाङ्ग ओर व्यवहार सूत्रमें व्यवहारके छः भेड़ कहे हैं उनमें पूर्व पूर्वके होने पर उत्तरोत्तरसे व्यवस्था नहीं दी जाती यह भी कहा है।
. बोल सोलहवां पृ० ३२७ से ३२९ तक । भगवती शतक १५ को टीकामें लिखा है कि भगवानसे गोशालकका खोकार करना अवश्यम्भावी भाव था इस लिये भगवान्ने गोशालकको स्वीकार किया था।
बोल १७ वां ३२९ से ३२९ तक ठाणाङ्ग ठागा नौ के अर्थमें लिखी हुई गाथा किसी मूलपाठ या प्रामाणिक टीका में नहीं मिलती और उसमें शिष्यवर्गको दीक्षा देनेका निषेध है एक शिष्यको दीक्षा देनेका निषेध नहीं है।
बोल १८ वो ३३० ते ३३१ तक · सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे सुन कर जम्बू स्वामीसे कहा है कि भगवान् महावीर स्वामीको छद्मस्थ दशामें किंचिन्मात्र भी पाप नहीं लगा था। .
__ बोल १९ वां ३३१ से ३३१ तक। भगवान महावीर स्वामीको दश स्वप्न पाये थे उस समय उनको अन्तर्मुहूर्त तक द्रव्य निद्रा आई थी। विधिपूर्वक द्रव्य निद्रा लेना प्रमादका सेवन नहीं है।
इति प्रायश्चित्ताधिकारः। अथ लेझ्याधिकारः।
बोल १ पृ० ३३२ से ३३५ तक संयतियोंमें कृष्णादि तोन अप्रशस्त भाव लेश्याए नहीं होती।
बोल दूसरा पृ० ३३५ से ३३७ तक .... भगवती शतक १.उद्देशा २ के मूलपाठमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में सगगी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी चारों प्रकारके साधुओंका निषेध है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com