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बोल छठ्ठा २९९ से ३०१ तक
रक्षामें राग करना, सावय नहीं है जैसे धर्ममें धर्माचार्य्यमें राग रखना सावध नहीं है।
बोल सातवां पृष्ठ ३०१ से ३०२ तक
भगवती शतक ७ उद्देशा १० के मूल पाठ में उष्ग तेजो लेश्याके पुद्गल को व्यचि कहा है इस लिये शीतल लेश्या के द्वारा उस को शान्त करने में आरम्भ दोष नहीं आता ।
बोल आठवां पृष्ठ ३०२ से ३०३ तक
भगवती शतक २० उद्देशा ९ की टीकामें जङ्घा चरण और विद्याचरण लब्धिका प्रयोग करना प्रमाद सेवन करना कहा है शीतल लेश्या का प्रयोग करना प्रमाद सेवन करना नहीं कहा है ।
बोल नवां पृष्ठ ३०३ से ३०४ तक
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छब्धिका प्रयोग न करके किसी दूसरे उपायसे भी भगवान यदि गोशालक की प्रागरक्षा करते तो भी जोतमलजीके मतमें पाप ही होता अतः इनका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है ।
इति लब्ध्यधिकारः ।
अथ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः ।
बोल १ पृष्ठ ३०५ से ३०६ तक
शीतल लेश्याका प्रयोग करके मरते प्रागीकी प्राणरक्षा करनेमें शास्त्रमें कहीं भी पाप होना नहीं कहा है तथा इस के लिये कहीं प्रायश्चित्तका भी विधान नहीं है. अतः सो अनगार, अतिमुक्त, रहनेमि आदि की तरह भगवान के प्रायश्चित करने की कल्पना करना अज्ञान है ।
बोल
दूसरा ३०६
पृष्ठ ३०८ तक
से भगवान महावीर स्वामी उच्च श्रेणिके कषाय कुशील थे अतः भ्रमविध्वंसन कार के कथनानुसार भी वह दोषके प्रतिसेवी नहीं हो सकते ।
बोल तीसरा पृष्ठ ३०८ से ३०९ तक.
भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें स्वल्प भी पाप और एक बार भी:प्रमादका सेवन नहीं किया था ।
बोल चौथा पृष्ठ ३०९ से ३१० तक
ब्याचारांग सूत्रकी "णञ्चाणंसे" और "अकसाइ" इत्यादि गाथाओं में भगवान् at केवल गुण वर्णन मात्र नहीं किंतु उनके दोषों का निषेध भी है ।
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