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बोल ३५ वां पृष्ठ २८२ से २८४ तक मुनिका व्यावच दूसरा है और व्यावचके लिये की जाने वाली क्रिया दूसरी है ...इसलिये यक्षसे किया हुआ हरिकेशी मुनिका व्यावच सावद्य नहीं है।
बोल ३६ वां पृष्ठ २८४ से २८५ तक शीतललेश्या प्रकट करके भगवान्ने गोशालक की प्राणरक्षा की थी इस अनु. कम्पाको सावध कहना अज्ञान है। शीतल हेश्यासे जोवविराधना नहीं किन्तु जीवरक्षा होती है।
बोल ३७ वां पृष्ठ २८५ से २९० तक विम्बसारका पुत्र राजा कौणिकने भगवान महावीर स्वामीके वंदनार्थ जाने के लिये चतुरङ्गिणी सेना सजाई थी परन्तु सेना सत्राने रूप कार्यके बजहसे जैसे भगवान् का वंदन सावद्य नहीं हुआ उसी तरह ईट उपाडनेसे बुड्ढे पर कृष्णजी की अनुकम्पा सावध नहीं हुई।
अथ लब्ध्यधिकारः।
बोल १ वां पृष्ठ २९९ से २९२ तक शीतल लेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुद्घात नहीं होता इसलिये उसमें जघन्य .. तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया नहीं लगती।
बोल दूसरा पृष्ठ २९२ से २९३ तक तेजो लब्धिधारी साधु क्रोधित होकर किसीको जलानेके लिये जो उष्ण तेजोळेश्या का प्रयोग करता है उसीमें तेजका समुद्घात होना कहा है मस्ते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये शीतल लेश्याका प्रक्षेप करनेमें नहीं।
बोल तीसरा २९३ से २९६ तक कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिको, पारितापनिकी, और प्राणातिपातिको ये क्रियायें हिंसाके भाव आनेसे लगती हैं रक्षाके भाव आनेसे नहीं।
बोल चौथा पृष्ठ २९६ से २९७ तक अतिशय दयालुताके कारण दया करने योग्य पुरुष के प्रति तेजोलेश्याको शान्त करने में समर्थ शीतल तेजो विशेष के छोड़ने की शक्तिका नाम शीतल लेश्या है।
बोल पाचवां पृष्ठ २९७ से २९८ तक ......मोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्य भावी जान कर
भगवान्ने उनकी रक्षा नहीं की रक्षामें पाप जान कर नहीं ।
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