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१.
२.
( ४३ )
तद्धित
तर प्रत्यय का तराय रूप होता है; यथा - प्रणिट्टतराए, अप्पतराए, बहुतराए, कंततराए इत्यादि ।
श्राउसो, श्राउसंतो, गोमी, वुसिमं, भगवंतो, पुरत्थिम, पचत्थिम, श्रीयंसी, दोसिणो, पोरेवच्च आदि प्रयोगों में मतुपू, और अन्य तद्धित प्रत्ययों के जैसे रूप जैन अर्धमागधी में देखे जाते हैं, महाराष्ट्री में वे भिन्न तरह के होते हैं ।
महाराष्ट्री से जैन अर्धमागधी में इनके अतिरिक्त और भी अनेक सूक्ष्म भेद हैं, जिनका उल्लेख विस्तार भय से यहाँ नहीं किया गया है ।
(५) जैन महाराष्ट्री
जैन सूत्र- प्रन्थों के सिवा श्वेताम्बर जैनों के रचे हुए अन्य ग्रन्थों की नाम-निर्देश और गया है । इस भाषा में तीर्थंकर और प्राचीन मुनियों के स्तुति आदि विषयों का विशाल साहित्य विद्यमान है ।
साहित्य
प्राकृत के प्राचीन वैयाकरणों ने 'जैन महाराष्ट्री' यह नाम देकर किसी भिन्न भाषा का उल्लेख नहीं किया है । आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने व्याकरण, काव्य और नाटक ग्रन्थों में महाराष्ट्री का जो रूप देखा जाता हैं उससे श्वेताम्बर जैनों के प्रन्थों की भाषा में कुछ कुछ पार्थक्य देख कर इसको 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया है । इस भाषा में प्राकृत-व्याकरणों में बताये हुए महाराष्ट्री भाषा के लक्षण विशेष रूप से मौजूद होने पर भी जैन अर्धमागधी का बहुत-कुछ प्रभाव देखा जाता है ।
जैन महाराष्ट्री के कतिपय ग्रन्थ प्राचीन है । यह द्वितीय स्तर के प्रथम युग के प्राकृतों में स्थान पा सकती हैं। पयन्ना-ग्रन्थ, नियुक्तियाँ, पउमचरिअ, उपदेशमाला प्रभृति ग्रन्थ प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के उदाहरण हैं । बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्र भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, निशीथ चूणि, धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा प्रभृति ग्रन्थ मध्य युग और शेष-युग में रचित होने पर भी इनकी भाषा प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के समान हैं । दशम शताब्दी के बाद रचे गये प्रवचन - सारोद्धार, उपदेशपट्टीका, सुपासनाहचरिअ, उपदेशरहस्य प्रभृति ग्रन्थों की भाषा भी प्राय: प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के ही अनुरूप हैं। इससे यहाँ पर यह कहना होगा कि जैन महाराष्ट्री के ये ग्रन्थ आधुनिक काल में रचित होने पर भी उसकी भाषा, संस्कृत की तरह, अतिप्राचीन काल में ही उत्पन्न हुई थी और यह भी अनुमान किया जा सकता हैं कि जैन महाराष्ट्री क्रमशः परिवर्तित होकर मध्य युग की व्यञ्जन-लोप- बहुल महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुई हैं।
अर्धमागधी के जो लक्षण पहले बताये गए हैं उनमें से अनेक इस भाषा में भी पाये जाते हैं । ऐसे लक्षणों में लक्षण कुछ ये हैं ——
समय
प्राकृत भाषा को 'जैन महाराष्ट्री' नाम दिया चरित्र, कथाएँ, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल,
१. क के स्थान में अनेक स्थलों में ग ।
२. लुप्त व्यञ्जनों के स्थान में यू ।
३. शब्द के आदि और मध्य में भी ए की तरह न ।
४.
यथा और यावत् के स्थान में क्रमश: जहा और जाव की तरह ग्रहा और भाव भी ।
समास में उत्तर पद के पूर्व में 'म्' का आगम ।
५.
६. पाय, माय, तेगिच्छग, पडुप्पराण, साहि, सुहुम, सुमिण आदि शब्दों का भी, पत्त, मेत्त, चेइच्छय आदि की तरह प्रयोग ।
७. तृतीया के एकवचन में कहीं कहीं सा प्रत्यय ।
८.
इक्ख, कुव्वइ प्रभृति धातु-रूप ।
६. सोचा, किच्चा, वंदित्तु आदि त्वा प्रत्यय के रूप ।
१०. कड, वावड, संवुड, प्रभृति त प्रत्ययान्त रूप ।
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