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* नीतिवाक्यामृत *
दरिद्रताको जान करके भी लोभके कारण उससे अविद्यमान धनादिककी याचना करता है वह उसका शत्रु है क्योंकि यह घेचारा कष्ट भोगकर उसे कुछ दे देता है ॥१॥ अत्र शक्ति के अनुसार प्रत नियम करने का निर्देश करते हैं:
तद्वतमाचरितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहतः शरीरमनसी ॥६॥ अर्थ:-नैतिक पुरुप को ऐसे प्रत नियम करने चाहिये जिनमे उसके शरीर और मन क्लेशित न हो।
चारायण ' नामक विद्वान ने भी कहा है कि जो मनुष्य शरीर की सामर्थ्य का विचार न करके अस वा नियम करता है उसका मन संक्लेशित होता है पुनः वह पश्चात्ताप करने लगता है और इसमे उमे प्रतका शुभ फल नहीं मिलता' |२||
विशत्रिमश:-शास्त्रकारोंने वनके निम्नप्रकार दो लक्षगा किये है। न्यायग्राम भोगोपभोग मामग्री का कुछ कालकी मर्यादासे त्याग करना नत है तथा असत् ( नीति विरुद्ध.) कार्यों (हिमा, मठ, बोरी
और कुशीलादि) से निवृत्त होना और अहिंमा तथा सत्य आदि शुभ कमि प्रवृत्ति करना व्रत कहा गया है।
प्रकरणमें नैतिक व्यक्तिको असन् कायों ( मद्यपान, मांसभक्षण, और परकलत्र मेवन आदि) का जीवन पर्यन्तके लिये त्याग करना चाहिये एवं शुक्ल कार्य ( अहिंसा, मत्य और परोपकार आदि पुण्यकर्म ) में प्रवृत्ति करनी चाहिये । तथा न्यायप्राप्त मेवन करनेके योग्य इष्टसामग्रीका त्यागभी अपनी शारीरिक शक्तिके अनुसार करना चाहिये ताकि उसे मानसिक रोदके कारण पश्चात्ताप न करना पड़े ||६|| अय त्याग-दानधर्म का माहात्म्य वताते हैं:
ऐहिकामुत्रिकालार्थमर्थव्ययस्त्यागः ॥१०॥ अर्थ.-इसलोक और परलोक संबंधी मुखोंकी प्रापिके लिये पात्रोंको धनादिकका देना त्यागधर्म है।
अर्थात् दाताको जिम दामसे ऐहिक (इमलोकसंबंधी-कीर्ति, सन्मान, और कौटुम्बिक श्रीवृद्धि आदि ) और पारलौकिक ( परलोकसंबंधी स्वर्ग-आदि ) मुख प्राप्त हों उसे दान त्यागधर्म कहा है।
अभिप्राय यह है कि दान पात्रको देना चाहिये परन्तु जो व्यसनी पुरुष व्यसनोंमें फंसकर अपने धन को बर्याद करते हैं वह दान नहीं है किन्तु धनका नाशही है।
तथा चं चारायण :अशक्या यः शरीरस्य व्रतं नियममेव वा । करोत्यातॊ भवेत् पश्चान् पश्चात्तापात् फलच्युतिः ।।१।। २ संकल्पपूर्वकसेव्ये नियमो मतमुच्यते । प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदमत्वामसंभवें ।।१।।
रारास्तिलक या."