Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१०२. आदेसेण णेरइय० विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति विहत्तिभंगो। णवरि अणंताणु०४ ओघं। तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खर विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । एवं जोणिणीसु । णवरि सम्म० णत्थि। पंचितिरिक्खअपज०-मणुसअपज० विहत्तिभंगो। मणुस०३ ओघं । णवरि मिच्छ०-अट्ठकसाय० विहत्तिभंगो । मणुसिणीसु पुरिस० छण्णोकसायभंगो । देवाणं णारयभंगो। एवं भवण०-वाण । णवरि सम्म० णत्थि। जोदिसि. विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव णवगेवजा ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । उवरि विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० ओघं। अणंताणु०४ जह• अणुभागसंकमो कस्स ? अणंताणुबंधि विसंजोएंतस्स चरिमाणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । एवं जाव० ।
६ १०२. आदेशसे नारकियोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतष्कका भङ्गोषके समान है। इसी प्रकार पहली प्रथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नाकियोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि उनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चद्विको अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त
और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिकों ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तरदेवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं है । ज्योतिषियों में दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है । सौधर्म कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। आगेके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका भङ्ग ओघके समान है। उनमें अनन् नुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? जो अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसया करनेवाला जीव अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान है वह उनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नरकगति आदि गतिसम्बन्धी सब अवान्तर मार्गणाओं में जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है उसका इतना ही तात्पर्य है कि जिस प्रकार अनुभागविभक्ति अनुयोगद्वारमें जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका निर्देश किया है उसी प्रकार यहाँ जघन्य अनुभागसंक्रमकी अपेक्षा स्वामित्वका निर्देश कर लेना चाहिए। मात्र जिन प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्वमें अनुभागविभक्तिसे अन्तर है उनके जघन्य स्वामित्वका अलगसे निर्देश किया है । उदाहरणार्थ सामान्यसे नारकियोंमें सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मका जघन्य स्वामित्व दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें स्थित जीवके और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुभागसत्कर्मका जघन्य स्वामित्व प्रथम समयमें संयुक्त हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवके बतलाया है। किन्तु इन अवस्थाओंमें यहाँ पर सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसंक्रमका