Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपतिपदेस कमे भागाभागो
अणुक० पदे ० संका • अड्ड भंगा । एवं जहण्णयं पि खेदव्वं ।
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९१८०. भागाभागो दुविहो – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० सम्म० - सम्मामि० उक्क० पदे ० संका० सव्वजीवाणं ० भागो ? असंखे ० भागो । अणु० असंखेज्जा १ भागा । सोलसक० -णवणोक० उक्क० पदे० संका • अनंतभागो । अणुक० अणंता भागा । एवं तिरिक्खा ० ।
६१८१. आदेसेण रइय० सव्यपयडी० उक्क० पदे ० संका • सव्वजी० असंखे०भागो । अणुक्क० असंखेज्जा भागा । एवं सव्त्ररइय- सव्त्रपंचिं० तिरिक्ख० - मणुसअपज ० -देवगदिदेवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुस्सेसु णारयभंगो । वरि मिच्छ० उक्क० पदे० संका ० संखे ० भागो । अणुक • संखेजा भागा। मणुसपञ्ज०• मणुसिणी ० - सब० देवा० सव्ववयडी उक्क० पदे० संका० संखे ० भागो । अणुक० संखेजा भागा । एवं जाव० ।
१८२. जहण्णयं पि उक्कस्तभंगेण दव्वं ।
प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके आठ भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार जघन्य संक्रमकी मुख्यतासे भी जानना चाहिए ।
१८०. भागाभाग दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सोलह कषाय और नौ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए ।
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१८१. आदेश से नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण इसी प्रकार सब नारकी, सब पन्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
§ १८२. जघन्य प्रदेश भागाभागको भी उत्कृष्टके समान ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ — यद्यपि सामान्य मनुष्य असंख्यात हैं तथापि उनमें मिथ्यात्वके संक्रामक ( सम्यग्दृष्टि ) संख्यात हैं । उनमेंसे संख्यातवें भाग उत्कृष्ट प्रदेश संक्रामक है । शेष बहु भाग अनुत्कृष्ट प्रदेश संक्रामक है ।
१. ता० प्रतौ संखेब्जा इति पाठः ।