Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४०१ वहिदसणादो। अध पढमसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणं संकामिय पुणो विदियसमयम्मि जहण्णसंकमट्ठाण१ जइ संकामेदि तो जहणिया हाणी होइ, जहण्णवहिमेत्तस्सेव तत्थ हाणिदंसणादो । अह जइ बिदियसमयम्मि जहण्णभावाविरोहेण वडिदण हाइदण वा पुणो तदियसमयम्मि आगमणिज्जरावसेण तत्तियं चेव संकामेदि तो तस्स जहण्णयमवद्वाणं होइ, दोसु वि समएसु अवद्विदपरिणामेण परिणदम्मि तदविरोहादो । एवमेसा थूलसरूवेण जहण्णवडि-हाणि अवट्ठाणाणं सामित्तषरूवणा कया ।
६६६६. संपहि सुहुमत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पुव्वुत्तजहण्णसंतकम्महाणम्मि एगपरमाणुम्मि वडिदे सा चे पुत्रपरूविदसंकमट्ठाणपरिवाडी उप्पजदि । एवं दो-तिण्णिआदिसंखेजासंखेजाणंतपरमाणुसु वडिदेसु वि ताणि चे संकमट्ठाणाणि उप्पज्जति, तहाभूदसंतकम्मवियप्पाणं विसरिससंकमट्ठाणंतरुप्पत्तीए अणिमित्तत्तादो। पुणो केत्तियमेत्तपरमाणणं वड्डीए विसरिससंकमट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तसंतकम्मवियप्पुप्पत्ती होइ ति वुत्ते वुच्चदे-जं जहाणसंतकम्मट्ठाणम्मि पडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणं तं तस्सेव विदियसंकमट्ठाणादो सोहिय सुद्धसेसमसंखेचलोगेहि भागे हिदे तत्थ भागलद्धमेत्ते जहण्णसंतकम्मट्ठाणस्सुवरि वड्डिदे पढमसंकमट्ठाणपरिवाडीए उबरि बिदियसंकमट्ठाणपरिवाडिउप्पायणकारणभूदं विदियं संतकम्मट्ठाणमुप्पज्जदि। विज्झादभागहारमसंखेजलोगवग्गं च अण्णोण्णपर जवन्य वृद्धि होती है, क्योंकि परिणामविशेषका आश्रय कर वहाँ असंख्यात लोक प्रतिभागसे संक्रमकी वृद्धि देखी जाती है। तथा प्रथम समयमें द्वितीय संक्रमस्थानको संक्रमाकर द्वितीय समयमें जघन्य संक्रमस्थानको यदि संक्रमित करता है तो जघन्य हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य वृद्धिमात्रकी ही हानि देखी जाती है । तथा यदि दूसरे समयमें जघन्यभावके अविरोध पूर्वक य वृद्धि या हानि करके पुनः तीसरे समयमें आय और व्ययके कारण उतनेका ही संक्रम करता है तो उसके जघन्य अवस्थान होता है, क्योंकि दोनों ही समयों में अवस्थित परिणाम रूपसे परिणत होने पर जघन्य अवस्थानके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। इस प्रकार यह स्थूलरूपसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानकी स्वामित्व प्ररूपणा की।
.६६६६. अब सूक्ष्म अर्थका कथन करते हैं। यथा-पूर्वोक्त जघन्य सत्कर्मस्थानमें एक परमाणुकी वृद्धि होने पर वही पहले कही गई संक्रमस्थान परिपाटी उत्पन्न होती है । इस प्रकार दो, तीन आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंकी वृद्धि होने पर भी वे ही संक्रामस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस प्रकारके सत्कर्म विकल्प विसदृश दूसरे संक्रमस्थानकी उत्पत्तिमें निमित्त नहीं हैं। पुनः कितने परमाणुओंकी वृद्धि होने पर विसदृश संक्रमस्थानकी उत्पत्तिके कारणभूत सत्कर्म विकल्पकी उत्पत्ति होती है ऐसा पूछने पर कहते हैं-जघन्य सत्कर्मस्थानमें प्रतिबद्ध जो जघन्य संक्रमस्थान है उसे उसीके दूसरे संक्रमस्थानमेंसे घटाकर जो शेष बचे उसमें असंख्यात लोकका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे जघन्य सत्कर्मस्थानके ऊपर बढ़ाने पर प्रथम संक्रमस्थानकी परिपाटीके उपर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटीको उत्पन्न करनेका कारणभूत दूसरा
१. आप्रतौ पढमसयम्मि जहण्णसंकमाढणं इति पाठः।