Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 507
________________ ४८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सेढोए वि णवकबंधचरिमादिफालीओ संछुहमाणयस्स विहत्तिभंगाणुसारेण संकमट्ठाणपरूवणा णियामोहमणुगंतव्या । सव्यसंकमे च पदेसविहत्तिभंगो। ६७८७. संपहि सम्मत्तसम्मामिच्छात्ताणमप्पप्पणो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उव्वेन्लणदुचरिमकंडयचरिमसमयम्मि उव्वेल्लणसंकमेण संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । एवमादि? कादूण पक्खेवुत्तरकमेण संतकम्मं वड्ढाविय असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि तण्णिबंधणाणि समुप्पाइय गहेयव्याणि । सेसो विही जहा मिच्छत्तस्स मणिदो तहा वत्तव्यो । णवरि जम्हि विज्झादभागहारो तम्हि उव्वेल्लणभागहारो उबेल्लण.. णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो ठवेयव्यो । संतकम्मपक्खेव पमाणं च अप्पणो जहण्गदव्वादो साहेयव्यं । पुणो कालपरिहाणीए संतकम्मोदारणाए च मिच्छत्तभंगमणुसंमरिय ओदोरेयव्वं जाव सगगालणकालं सबमोइण्णस्स उबेल्लणापारंभपढमसमयो ति । ऐवमोदारिदे उव्वेल्लणसंकममस्सिऊण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजलोगमेत्ताणि संकमट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि भवंति । एत्थ पुणरुत्तापुणरुत्ताणुगमे मिच्छत्तविज्झादसंकमभंगो। ६७८८. पुणो चरिमुवेलणकंडयम्मि दोण्हमेदेसिं कम्माणं गुणसंकमसंभवो ति । तत्थापुरकरणम्मि मिच्छत्तस्स जहा संकमट्ठाणपरूवणा कया तहा कायव्वा । तत्थेव बन्धकी अन्तिम आदि फालियोंका संक्रमण करनेवाले जीवकी विभक्तिभंगके अनुसार संक्रमस्थान प्ररूपणा विना व्यामोहके करनी चाहिए । सर्वसंक्रममें प्रदेशविभक्तिके समान भंग है। .६७८७. अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा विचार करने पर अपने अपने जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर उद्वेलनाके द्विचरम काण्डकके अन्तिम समयमें उद्वेलनासंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान होता है। आगे इसे आदि करके प्रक्षेपोत्तरके क्रमसे सत्कर्मको बढ़ाकर तन्निमित्तक असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थानोंको उत्पन्न करके ग्रहण करना चाहिए । शेष विधि जिस प्रकार मिथ्यात्वकी कही है उस प्रकार कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ विध्यातभागहार कहा है वहाँ उद्वेलनभागहार और उद्वेलनासंक्रमकी नाना गुणहानि शलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि भागहार स्थापित करना चाहिए । तथा सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण अपने जघन्य द्रव्यके अनुसार साध लेना चाहिए । पुनः कालपरिहानि और सत्कर्मके उतारनेमें मिथ्यात्वके भंगका स्मरण कर पूरा अपने गालन का काल उतरे हुए जीवके उद्वेलनाके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर उद्वेलनासंक्रमका आश्रय कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर पुनरुक्त और अपुनरुक्तके अनुगममें मिथ्यात्बके विध्यातसंक्रमके समान भंग है। ६७८. पुनः अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें इन दोनों कर्मोंका गुणसंक्रम सम्भव है। सो वहाँ अपूर्वकरणमें मिथ्यात्वकी जिस प्रकार प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए । वहीं पर.अन्तिम १.ता० प्रती एव (द ) मादि इति पाठः ।

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