Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणा।
४८१ चरिमफालिं संकामेमाणस्स सबसंकमो होदि ति तत्थ अणताणं संकमट्ठाणाणं परूवणा जाणिय कायया । अण्णं च मिच्छत्तं पडिवण्णस्स जाव उव्वेन्लणसंकमपारंभो ण होइ ताब अंतोमुहुत्तकालमधापवत्तसंकमो होइ ति । एत्थ वि अधापवत्तसंकमचरिमसमयमादि कादण जाव अधापवत्तसंकमपढमसमयो त्ति ताव समयं पडि पादेकमसंखेजलोगमेत्तसंकमद्वाणाणि संतकम्मभेदं परिणामभेदं च णिवंधणं कादूण परूवेयवाणि । सम्मामिच्छत्तस्स विज्झादसकमेण दंसणमोहक्खायापुवाणियट्टिगुणसंकमेण तत्थतणसव्वसंकमेण उवसमसम्माइट्ठिम्मि गुणसंकमेण च द्वाणपरूवणाए कीरमाणाए मिच्छतभंगो । एवमोघेण सबकम्माणं ठाणपरूवणा समत्ता ।
७८६. आदेसेण मणुसतियम्मि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेदस्स अपुचकरणावलियपविट्ठचरिमसमयम्मि जहण्णसामित्तं होइ ति तमादि कादूण परूवणा कायया । सेसमग्गणासु जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति । एवं सगतोक्खित्तपमाणाणुगमं परूवणाणिओगद्दारं समत्तं ।।
६७६०. संपहि एवं परूविदसंकमट्ठाणाणं पमाणविसयणिण्णयुप्पायणट्ठमप्पा बहुअपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* अप्पाबहुअं।
फालिका संक्रम करनेवाले जीवके सर्वसंक्रम होता है इसलिए वहाँ पर अनन्त संक्रमस्थानोंक प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए । और भी मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके जब तक उद्वेलनासंक्रमर्क प्रारम्भ नहीं होता तब अन्तमुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । यहाँ पर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम के अन्तिम समयसे लेकर अधःप्रवृत्तसंक्रमके प्रथम समय तक प्रत्येक समयमें अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान सत्कर्मके भेदको और परिणामभेदको निमित्त कर कहने चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वकी विध्यातसंक्रमके आश्रयसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणसंक्रमके आश्रयसे, वहाँ सर्वसंक्रमके आश्रयसे और उपशम श्रेणिमें गुणसंक्रमके आश्रयसे स्थानप्ररूपणा करने पर उसका भंग मिथ्यात्वके समान है । इस प्रकार ओघसे सब कर्मों की स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई।
६७८६. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेदका अपूर्वकारणके श्रावलिप्रविष्ट अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है, इस लिए उससे लेकर प्ररूपणा करनी चाहिए। शेष मार्गणाओंमें अनाहारक मार्गणातक जानकर प्ररूपणा करनी चाहिए। इसप्रकार जिसके भीतर प्रमाणानुगम अन्तलीन है ऐसा प्ररूपणानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६७६०. अब इसप्रकार कहे गये संक्रमस्थानोंका प्रमाणविषयक निर्णय करनेके लिए अस्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अल्पबहुत्वका अधिकार है ।
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