Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
४८७
गा०५८
उत्तरपवडिपदेससंकमे संकनट्ठाणाणि * पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८०७. कुदो ? पयडिविसेसादो।
* कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । ६८०८ कुदो ? कसायचउभागेण सह णोकसायभागस्स सव्यस्सेव कोहसंजलणचरिमफालीए सव्यसंकमसरूवेण परिणदस्सुवलंभाद ।
* माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । हु८०६. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमोणि, विहत्तीए परूविदकारणत्तादो ।
एवमोघो समप्पो। 5८१०. एत्तो आदेसपरूवणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधी
*णिरयगईए सव्वत्थोवाणि अपचक्खाणमाणे पदेससंकमठाणाणि।
८११. एदाणि असंखेज्जलोणमेत्ताणि होदूण सेससव्वपयडिपदेससंकमट्ठाणेहितो थोवाणि ति भणिदं होइ।।
® कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पदेससंकमठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* उनसे पुरुषवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। ६८०७. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उनसे क्रोधसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं।
हु८०८. क्योंकि कषायके चतुर्थभागके साथ नोकषायोंका भाग पूरा ही क्रोधसंज्वलनकी अन्तिम फालिमें सर्वसंक्रमरूपसे परिणत होकर उपलब्ध होता है।
* उनसे मानसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायासंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। ६८०६. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं, विभक्तिमें इसका कारण कह आये हैं।
इस प्रकार ओघ समाप्त हुआ। ६८१०. अब आदेशका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध बतलाते हैं* नरकगतिमें अप्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे स्तोक हैं ।
६८११. ये असंख्यात लोकमात्र होकर शेष सब प्रकृतियों के प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे स्तोक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं।
* उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायामें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।