Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 531
________________ ५०४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ तो सव्स कमविए परमाणुत्तरकमेण वड्डी लब्भदि ति । तत्थाणंताणि संकमट्ठाणाणि जादाणि तत्तो अण्णत्थ पुण अस खेज लोगपडिभागेणेत्र वडिदंसणा दो । असंखेज लोगमेचाणि चैव स कमाणाणि होंति त्ति एसो एदस्स भावत्थो । संपहि पयडिविसेसण वि साहियपी सकमट्ठाणाणं विसेसाहियत्ते कारणपरूवणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह - * माणस्स जहपणए संतकम्मट्ठाणे असंखेज्जा लोगा पदेससंकमद्वापाणि । ९८३६. सुगमं । * तम्मि चेव जहण्णए माणसंतकम्मे विदियसंकमट्ठाणविसेसस्स 'असंखेज्जलोगभागमेत्ते पक्खित्ते माणस्स बिदियसंकमट्ठाणपरिवाडी | ६ ८४०. मोणजहण्णस तकम्मे अधापवत्तम । गहा रेणावट्टिदे माणजहण्णस कमड्डाणं होइ पुणो तम्मि अस खेजलोगमेत भागहारेण भागे हिदे विदियस कमट्ठा णविसेसो आगच्छइ । तम्मि अण्णास खेज लोग भागहारेण भाजिदे माणस्स सतकम्मपक्खेवपमाणं हो । एदं घेत्तण पडिरासिद जहण्णस तकम्मट्ठोणस्सुवरि पक्खित्चे माणस्स बिदियस कमट्ठा परिवाडी होइ, पक्खेवुत्तरजहण्णस तकम्मादो परिणामट्ठाणमेत्ताणं चेत्र सकमट्टाणा - मुपची निव्वाहमुवलंभादो त्ति एसो अत्थो एयेण सुत्तरेण परूविदो । एवमेदेण सूत्र का अवतार कहना चाहिए। अतएव सर्वसंक्रमके विषय में एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे वृद्धि प्राप्त होती है, इसलिए उसमें अनन्त प्रदेशसंक्रमस्थान प्राप्त हो जाते हैं। उससे अन्यत्र तो असंख्यात लोक प्रमाण प्रतिभाग से ही वृद्धि देखी जाती है, इसलिए असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थान होते हैं इस प्रकार यह इसका मावार्थ है । अब प्रकृति विशेषसे विशेष अधिक रूप प्रकृतियोंमें संक्रमस्थानोंके विशेष अधिकपनेमें कारणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं * मानके जघन्य सत्कर्ममें असंख्यात लाक प्रदेशसंक्रमस्थान होते हैं । ८३. यह सूत्र सुगम है । * उसी जघन्य मानसत्कर्म में दूसरे संक्रमस्थानका विशेष असंख्यात लोकभागमात्र प्रचिप्त करने पर मानको दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है । ६८.४० मानके जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर मानका जघन्य संक्रमस्थान होता है । पुनः उसमें असंख्यात लोकमात्र भागहारका भाग देने पर दूसरे संक्रमस्थानका विशेष आता है । उसमें अन्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका भाग देने पर मानके सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण आता है । इसे प्रहण कर प्रतिरा शिरूपसे स्थापित जघन्य सत्कर्मस्थानके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर मानकी दूसरो संक्रमस्थान परिपाटी होती है क्योंकि एक प्रक्षेप अधिक जघन्य सत्कर्म से परिणाममात्र ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति निर्वाधरूपसे उपलब्ध होती है। इस प्रकार यह अर्थ इस सूत्र द्वारा कहा गया है। इस प्रकार इस सूत्र से मानसत्कर्मके प्रक्षेपका प्रमाण

Loading...

Page Navigation
1 ... 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590