Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवला सहिदे कषायपाहुडे
[ बंधगो ६
९ ८३४. सुगमत्तादो ण एत्थ किंचि वत्तव्यमत्थि । एवमेइ दिएसु समत्तमप्पाबहुअं । बीई दिय-तीइ दिय- चउरिदिए वि एवं चैव वत्तव्वं अविसेसादो । पंचिदियपंचिदियपजत्तसु ओघभंगो । पंचिदिय अपजत्तएस एइ दियभंगो । एवं जाणिऊण दव्यं जाव अणाहारए ति । एवमेदमप्पा बहुअं समाणिय संपहि गिरयगइप डिबद्धप्पाव हुए विपदे कारणपरूवणमुत्ररिमपबंध माह
५०२
* केन कारणेण णिरयगईए पञ्चक्खाणकसायलोभपदेससंकमट्ठाणेहिंतो मिच्छत्ते पदेससंक मट्ठाणाणि श्रसंखेज्जगुणाणि ।
.
९ ८३५. एवं पुच्छंतस्सायमहिप्पाओ, पच्चक्खोणलोभपदेसग्गादो मिच्छत्तस्स पदेसग्गं विसेसाहियं चैव तत्तो समुप्पजमाणसंकमड्डाणाणं पि तहाभावं मोत्तण कथ-मसंखेञ्जगुणत्तं घडदि ति । संपहि एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणमुत्तरमुत्तमोइणं* मिच्छत्तस्स गुणसंकमो अत्थि । पञ्चक्खा एकसायलोहस्स गुणसंकमो णत्थि । एदेण कारणेण पिरयगईए पच्चक्खाणकसायलोहपदेससंक मट्ठाणेहिंतो मिच्छत्तस्स पदेससंकमद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।
९ ८३६. गयत्थमेदं सुत्तं, अधापवत्तसंक्रमपरिणामट्ठारोहितो गुणसंक्रमपरिणामसंजगुणत्तमस्ऊिण पुत्रमेत्र समत्थियत्तादो। ण च परिणामट्ठाणाणं तहाभावो
९ ८३४. सुगम होनेसे यहाँ कुछ वक्तव्य नहीं है । इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें अल्पबहुत्त्र समाप्त हुआ । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियोंमें भी इसी प्रकार कहना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है | पञ्चेन्द्रिय और पश्च न्द्रिय पर्याप्तकों में श्रोघ के समान भंग है । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार इस अल्पबहुत्व को समाप्त कर अब नरक - गतिसे प्रतिबद्ध अल्पबहुत्व के किन्हीं पदोंमें कारणका कथन करने के लिए आगे के प्रबन्धको कहते हैं
* नरकगतिमें प्रत्याख्यानकषायके लोभसम्बन्धी प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्व में प्रदेशस ंक्रमस्थान असख्यातगुणे किस कारणसे हैं ।
९ ८३५. इस प्रकार पूछनेवालेका यह अभिप्राय है कि प्रत्याख्यान लोभके प्रदेशोंसे मिथ्यात्व के प्रदेश विशेष अधिक ही हैं, इसलिए उनसे उत्पन्न हुए संक्रमस्थान भी उसी प्रकार के न होकर असंख्यातगुणे कैसे घटित होते हैं। अब इस प्रकारकी शंकाको निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* मिथ्यात्वका गुणसंक्रम है, प्रत्याख्यान लोभ कपायका गुणसंक्रम नहीं है । इस कारण से नरकगति में प्रत्याख्यान लोभकषाय के प्रदेश संक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं,
६ ८३६. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि अधःप्रवृत्तसंक्रमके परिणामस्थानोंसे गुणसंक्रमके परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं इस बातका श्राश्रय कर पूर्वमें ही इसका समर्थन कर आये हैं ।