Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 519
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ पडिलंभेण तेत्तीस ' सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणाणि गालिय समुप्पा हदजहण्णस तकम्मेण सह माणचरिमसम वेदयसम्माइट्ठिम्मि उवसमसम्मत्तग्गहणस भवादो । तदो एवंभूदGet deम्मेण णिरयादो उच्चट्टिऊण तप्पा ओग्गेण पलिदोवमास खेज्जभागमेत्तका लेण बेद पाओग्गभावं बोलिय तक्कालब्भंतरसंचिद पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तसमयपबद्धपविद्धदव्यमेत्तेण जहण्णदव्त्रम भहियं कादूणागदस्स रइएसु अंतोमुहुत्तोववण्णल्लयस्स गुणसंकमपाओग्गजहण्णसंतकम्मं होदि । एदं च सव्वजहण्णमिच्छत्तसंतकम्मादो असंखेजभाग भहियं, पलिदो |मासंखेज्जभागमेत्ताणं समयपवद्धाणमेत्थन्भहियाणमुवलंभादो । संचयमाहप्पादो तत्तो असंखेजगुणन्महिय मेदं किण्ण होदि ति १ णासंकणिज्जं, पुव्युत्तकालुब्धंतरे एकिस्से वि गुणहाणीए वि असंभवणियमादो । कुदो एदमवगम्मदे १ परमगुरूवएसा दो । पुव्युत्त सव्वजहण्णमिच्छत्तस तकम्मादो पक्खेवुत्तर कमेणा संखेज लोगमेत्तसंतकम्मवियप्पे समुल्लंघिऊण समुप्पण्णमेदं ति दट्ठव्वं, एकम्मि वि समयपबद्ध संतकम्मपक्खेवपमाणेण कीरमाणे अस खेज्जलोगमेत्तस तकम्मपक्खेवाणमुवलद्धीदो | ४६२ सागर काल बिता कर उत्पन्न किये गये जघन्य सत्कर्म के साथ जो वेदकसम्यग्दृष्टि अन्तिम समयमें स्थित है उसके उपशमसम्यक्त्वका ग्रहण सम्भव है। इसके बाद इस प्रकार के जघन्य सत्कर्मके साथ नरकसे निकल कर तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा वेदकप्रायोग्यभावको बिताकर उस कालके भीतर संचित पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों से प्रतिबद्ध द्रव्यसे जघन्य द्रव्यको अधिक कर जो आया है और जिसे नारकियोंमें उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त हुआ है उसके, गुणसंक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्म होता है । और यह सबसे जघन्य मिध्यात्वके सत्कमेसे असंख्यातवाँ भाग अधिक होता है, क्योंकि इसमें पल्यके असंख्यातवें भागमात्र समयप्रबद्ध संचयके माहात्म्यवश अधिक उपलब्ध होते हैं । शंका-उससे यह असंख्यातगुणा अधिक क्यों नहीं होता ? समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालके भीतर एक भी हानि सम्भव नहीं है ऐसा नियम है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- परम गुरुके उपदेशसे यह जाना जाता है । पूर्वोक्त सबसे जघन्य मिथ्यात्वके सत्कर्म से एक प्रक्षेप अधिक के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र सत्कर्म विकल्पोंको उल्लंघन कर यह उत्पन्न हुआ है ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि एक भी समयप्रबद्धको सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करने पर असंख्यात लोकमात्र सत्कर्म प्रक्षेपोंकी उपलब्धि होती है ।

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