Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 518
________________ गा ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ४६१ मेबेदं, परमगुरुपरंपरागयविसिट्ठोवएसणिबंधणत्तादो। केरिसो सो गुरुवएसो ति चे ? वुच्चदे-सव्वत्थोवाणि उबेल्लणसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि, विज्झादसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि, अधापवत्तसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, गुणसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणगारो सबत्थासंखेजा लोगा । तदो संतकम्मट्ठाणगुणगारादो परिणामगुणगारस्सासंखेजगुणत्तेण मिच्छत्तविज्झादसंकमट्ठाणेहितो पच्चक्खाणलोभस्स अधापवत्तसंकमट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तमिदि घेत्तव्वं । जइ एवं; मिच्छत्तसंकमट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तमेदं कथं पयदि ति णास कणिजं, गुणसंकममाहप्पेण तेसिं तहाभावसमत्थणादो। तं जहा ६८१७. पुव्वुत्तमिच्छत्तजहण्णसतकम्मट्ठाणमादि कादूण जाव तस्सेवुक्कस्सस कमट्ठाणे त्ति ताव एदेसिमसखेज लोगमेत्तसतकम्मट्ठाणाणमेगसेढिआयारेण परिवाडीए रचणं कादण पुणो एत्थ गुणस कमपाओग्गजहण्णसतकम्मगवेसणं कस्सामो। तं कधं १ ण ताव एत्थतणसवजहण्णसतकम्मट्ठाणेण गुणसकमसंभवो, खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावद्विसागरोवमाणि परिभमिय मिच्छत्तं गंतूण णेरइएसुववजिय सव्वलहु सम्मत्तं गुणे अधिक स्वीकार किये हैं। और यह माननामात्र नहीं है, क्योंकि परम गुरुका परम्परासे आया हुआ उपदेश इसका कारण है। शंका-वह गुरुका उपदेश किस प्रकार का है ? समाधान-कहते हैं, उद्वेलनासंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे विध्यातसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे गुणसंक्रमके (कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। गुणकार सर्वत्र असंख्यात लोक है। इसलिए सत्कर्मस्थानोंके गुणकारसे परिणामस्थानोंका गुणकार असंख्यातगुणा होनेसे मिथ्यात्वके विध्यातसंक्रमस्थानोंसे प्रत्याख्यान लोभके अधःप्रवृत्तसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो मिथ्यात्वके संक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं यह कैसे कहा गया है? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गुणसंक्रमके माहास्यवश उनका इस रूपसे समर्थन किया है । यथा ६८१७. पूर्वोक्त मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर उसीके उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान तक इन असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थानोंकी एक श्रेणिके आकारसे क्रमसे रचना करके पुनः यहाँ गुणसंक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्मकी गवेषणा करते हैं। शंका-वह कैसे ? समाधान-क्योंकि यहाँके सबसे जघन्य सत्कर्मस्थानके आश्रयसे गुणसंक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर मिथ्यात्वमें जाकर नारकियोंमें उत्पन्न हो अतिशीघ्र ही सम्यक्त्वको प्राप्त कर उसके साथ अन्त

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