Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 520
________________ ४६३ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणणि ६८१८. सपहि एवं विहाणेण परूविदतप्पाओग्गजहण्णसंतकम्मेण णेरइएसुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तेण पजत्तीओ समाणिय उवसमसम्मत्तुप्पायणपढमसमए जहण्णपरिणामेण संकामेमाणस्स गुणसंकममस्सिऊण सव्वजहण्णसंकमट्ठाणं होइ । एदं च विज्झादसंकममस्सिऊण पुन्चमुप्पण्णस कमट्ठाणेसु केण वि सह सरिसण होदि । किं कारणं ? तत्थुप्पण्णसव्वुकस्ससंकमट्ठाणादो वि ऐदस्स गुणसंकमभागहारपाहम्मेणासंखेजगुणब्भहियत्तदंसाणादो । पुणो एदं चे णिरुद्धजहण्णसंतकम्मट्ठाणं विदियपरिणामट्ठाणेण संकामेमाणस्स असंखेजलोगभागवड्डीए विदियस कमट्ठाणं होदि । एत्थ परिणामट्ठाणाणमपुब्धकरणभंगेणाणुगमो काययो । एवमेदेण कमेण तदियादिपरिणामे विणाणाकालसंबंधेण गाणाजीवेहिं परिणमाविय उबसमसम्माइट्ठिपढमसमए जहण्णसंतकम्ममेदं धुवं कादणासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि समुप्पाएयव्याणि । एवं पढमपरिवाडी समत्ता। ६८१६. संपहि एदं संतकम्ममस्सिऊण पढमसमयम्मि अण्णाणि सकमट्ठाणाणि ण उप्पज्जति ति एत्तो पक्खेवुत्तरसंतकम्मं घेत्त ण एवं चे परिणामट्ठाणमेत्तायोमेण विदियपरिवाडीए संकमट्ठाणाणमुप्पत्ती वत्तव्या । पुवुत्तकालभंतरे एगसंतकम्मपक्खेवमेत्तेणमहियजहण्णदव्यसंचयं कादूणागदस्स उवसमसम्मत्तग्गहणपढमसमए वट्टमाणस्स तदुप्पत्तिदंसणादो । एदेण बीजपदेणेगेगसंतकम्मपक्खेवेणाहियं संचयं कराविय उवसमसम्माइट्ठिपढमसमयम्मि संतकम्मपक्खेवं पडि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि णिव्यामोहमुप्पा ६८१८. अब इस विधिसे तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्तमें पर्याप्तियोंमें पूराकर उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करने के प्रथम समयमें जघन्य परिणामसे संक्रमण करनेवाले जीवके गुणसंक्रमका आश्रयकर सबसे जघन्य संक्रमस्थान होता है। और यह विध्यातसंक्रमका आश्रय कर पूर्व में उत्पन्न हुए संक्रमस्थानोंमेंसे किसी भी संक्रमस्थानके साथ सहश नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर उत्पन्न हुए सबसे उत्कृष्ट संक्रमस्थानसे भी यह गुणसंक्रमके भागहारके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा अधिक देखा जाता है। पुनः इसी विवक्षित जघन्य सत्कर्मस्थानका दूसरे परिणाम स्थानके निमित्तसे संक्रम करनेवाले जीवका असंख्यात लोक भागवृद्धिके साथ दूसरा संक्रमस्थान होता है । यहाँ पर परिणामस्थानोंका अपूर्वकरणके भंगके अनुसार अनुगम करना चाहिए। इस प्रकार इस क्रमसे तृतीय आदि परिणामोंको भी नानाकालके सम्बन्धसे नानाजीवोंके द्वारा परिणमा कर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें इस जघन्य सत्कर्मको ध्रुव करके असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान उत्पन्न कराने चाहिए । इसप्रकार प्रथम परिपाटी समाप्त हुई। ८१६. अब इस सत्कर्मका आश्रय कर प्रथम समयमें अन्य संक्रमस्थान नहीं उत्पन्न होते, इसलिए एक प्रक्षेप अधिक सत्कर्मको ग्रहण कर इसी प्रकार परिणामस्थानप्रमाण आयामसे दूसरी परिपाटीसे संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति कहनी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालके भीतर एक सत्कर्मप्रक्षेपमात्रसे अधिक जघन्य द्रव्यका संचय करके आये हुए जीवके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें विद्यमान रहते हुए उसकी उत्पत्ति देखी जाती है । इस बीजपदके अनुसार एक एक सत्कर्मप्रक्षेपसे अधिक संचय कराकर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सत्कर्मप्रक्षेपके RAAmar

Loading...

Page Navigation
1 ... 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590