Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे संकमट्ठाणााण
४६५ वि मिच्छत्तस्स गुणसंकमकालावलंबणेण अंतोमुहुत्तमेत्तगुणगारुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो।
* हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । .
६८२१. कुदो ? देसघादिपाहम्मादो। कधं पुण देसघादित्तमाहप्पेणाणतगुणत्तसंभवपाओग्गविसए असंखेजगुणत्तमेदं धडदि ति णासंकणिज्जं, सव्वघादीसु देसघादीसु च सव्यसंकमादो अण्णत्थासंखेजलोगमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणं संभवब्भुवगमादो । कुदो एवं चेव १ सयघादिसंतकम्मपक्खेवादो देसघादिसंतकम्मपक्खेवस्साणंतगुणत्तब्भुवगमादो । जइ एवं, उहयत्थ संकमट्ठाणविक्खंभायामाणमसंखेजलोगपमाणत्ते समाणणे संते कथमेदेसिमसंखेजगुणत्तं जुजदि ति ?ण एस दोसो, तत्थतणविक्खंभायामेहितो एत्थतणविक्खंभायामाणं देसघादिपाहम्मेणासंखेजगुणतावलंबणादो । तं जहा
६८२२. गुणसंकमभागहारपुव्वुत्तण्णोण्णभत्थरासि-बेअसंखेजलोग-जोणगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गमेत्तो मिच्छत्तगुणसंकमट्ठाणवरिवाडीणमायामो होइ । एत्थतणो पुण अधापवत्तभागहार-वेअसंखेजालोगगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गजणिदरासिपमाणो होइ । होतो वि पुबिन्लादो एसो असंखेजगुणो, तत्थतणासंखेजलोगभागहोरादो एत्थतणापर भी मिथ्यात्वके गुणसंक्रमकालके अवलम्बन द्वारा अन्तर्मुहूर्तमात्र गुणकारकी उत्पत्ति परिस्फुट उपलब्ध होती है।
* उनसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगणे हैं। ६८२१. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है । उसके माहात्म्यवश ऐसा है।
शंका देशघातिके माहात्म्यवश अनन्तगुणे होना सम्भव है, ऐसा होते हुए भी यह असंख्यातगुणा होना कैसे बनता है ?
समाधान_ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियोंमें सर्वसंक्रमके सिवा अन्यत्र असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है।
शंका-ऐसा ही कैसे है ? ..समाधान—क्योंकि सर्वघाति सत्कर्मप्रक्षेपसे देशघातिका सत्कर्मप्रक्षेप अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो उभयत्र संक्रमस्थानोंका विष्कम्भ और आयाम असंख्यात लोकप्रमाण समान होने पर ये असंख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँके विष्कम्भ और आयामसे यहाँका विष्कम्भ और आयाम देशघातिके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा स्वीकार किया है । यथा
६८२२. गुणसंक्रमभागहार, पूर्वोक्त अन्योन्याभ्यस्तराशि, दो असंख्यात लोक और योग गुणकारका परस्पर संवर्गमात्र मिथ्यात्वके गुणसंक्रमस्थानसम्बन्धी परिपाटियोंका आयाम होता है। परन्तु यहाँ का आयाम अधःप्रवृत्तभागहार, दो असंख्यात लोक गुणकारके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई राशिप्रमाण है। ऐसा होता हुआ भी पहलेके आयामसे यह असंख्यातगुणा है,