Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उत्तरपयडिपदेस कमे संक्रमट्ठायाणि
* मायाए पदेससंकमठाणाणि विसेसाहियाणि । * लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
गा० ५८ ]
* श्रताणुषंधिम। एस्स पदेससंकमद्वाणाणि विसेस | हियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* मायाए पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* मिच्छत्तस्स पदेससंक मट्टायाणि विसे साहियाणि ।
६७६७. एदोणि सुत्ताणि सुगमाणि, पयडिविसेसमेत्तकारणावेक्खिदत्तादो | * सम्मामिच्छत्ते पदेससंक मट्ट। ए| णि विसेसाहियाणि ।
६ ७६८. किं कारणं ? मिच्छत्तजहण्णचरिमफालिमुकस्सचरिमफालीदो सोहिय सुद्धसेसदव्वादो सम्मामिच्छत्तसुद्ध से सचरिमफलिदव्त्रस्स गुणसंक्रमभागहारेण खंडदेय. खंडमेत्तेण अहियत्तदंसणादो । मिच्छाइट्ठिम्मि वि सम्मामिच्छत्तस्स अनंताणं संकम
महियाणमुत्रलंभादो च ।
* हस्से पदेससंक मट्ठा पाणि अनंतगुणाणि । ७६६. कुदो ? देसघाइत्तादो ।
* उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
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* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे मिथ्यात्वमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
६७६७. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि यहाँ प्रकृति विशेषमात्र कारणकी अपेक्षा है । * उनसे सम्यग्मिथ्यात्व में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
६७६८, क्योंकि मिथ्यात्वकी जघन्य अन्तिम फालिको उसकी उत्कृष्ट न्तिम फालिमें से घटा कर जो द्रव्य शुद्ध शेष रहे उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी शुद्ध शेष अन्तिमफालिका द्रव्य गुणसंक्रमभागहारसे खण्डित करने पर एक खण्डमात्र अधिक देखा जाता है । तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में भी सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्त संक्रमस्थान अधिक उपलब्ध होते हैं ।
* उनसे हास्यमें प्रदेश संक्रमस्थान अनन्तगुणे हैं ।
६ ७६६. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है ।